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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा १२-१३ ग्रन्थाध्ययनम् - अयमपरः सूत्रेणैव दृष्टान्तोऽभिधीयते - - अब सूत्रकार सूत्र के द्वारा ही यह दूसरा दृष्टान्त कहते हैं - णेता जहा अंधकारंसि राओ, मग्गं ण जाणाति अपस्समाणे । से सूरिअस्स अब्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि ॥१२॥ छाया - नेता यथाऽन्धकारायां रात्री, मार्ग न जानात्यपश्यन् । स सूर्यस्याभ्युद्धमेन, मार्ग विजानाति प्रकाशिते ॥ अन्वयार्थ - (जहा णेता अंधकारंसि राओ) जैसे मार्ग दर्शक पुरुष अन्धेरी रात्रि में (अपस्समाणे मग्गं ण जाणाति) न देखता हुआ मार्ग को नहीं जानता है (से सरिअस्स अब्मुग्गमेणं पगासियंसि) परन्तु वही सूर्योदय होने के पश्चात् चारो तर्फ प्रकाश फैलने पर (म को जान लेता है। भावार्थ - जैसे मार्ग दर्शक पुरुष अँधेरी रात्रि में न देखता हुआ मार्ग को नहीं जान सकता है परन्तु सूर्योदय होने के पश्चात् प्रकाश फैलने पर मार्ग जान लेता है। (इसी तरह जिन वचन के ज्ञान से जीव सन्मार्ग को जान लेता है।) टीका - यथा हि सजलजलधराच्छादितबहलान्धकारायां रात्रौ 'नेता' नायकोऽटव्यादौ स्वभ्यस्तप्रदेशोऽपि 'मार्ग' पन्थानमन्धकारावृतत्वात्स्वहस्तादिकमपश्यन्न जानाति-न सम्यक् परिच्छिनत्ति । स एव प्रणेता 'सूर्यस्य' आदित्यस्याभ्युद्गमेनापनीते तमसि, प्रकाशिते दिक्चक्रे सम्यगाविर्भूते पाषाणदरीनिम्नोन्नतादिके मार्ग जानाति-विवक्षितप्रदेशप्रापकं पन्थानमभिव्यक्तचक्षुः परिच्छिनत्ति-दोषगुणविचारणतः सम्यगवगच्छतीति ॥१२॥ टीकार्थ - जैसे जङ्गल आदि के प्रदेशों को अच्छी तरह परिचय किया हुआ भी कोई पुरुष जल से भरे हुए मेघों से ढंकी हुई रात्रि में अत्यन्त अन्धकार के कारण अपने हाथ आदि को भी देखने में समर्थ न होता हुआ मार्ग के निश्चय करने में समर्थ नहीं होता है परन्तु वही पुरुष सूर्य के उदय होने पर जब अन्धकार हट जाता है और दिशायें प्रकाशित हो जाती हैं तब पत्थर, कन्दरा एवं ऊँचा, नीचा स्थान साफ-साफ दीखाई देने लगता है, तब इष्ट स्थान को पहुँचानेवाले मार्ग को, गुण दोष विचारकर निश्चित कर लेता है, क्योंकि उस समय उसके नेत्र की शक्ति प्रकट हो जाती है ॥१२॥ - एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्टान्तिकमधिकृत्याह - - इस प्रकार दृष्टान्त बताकर अब शास्त्रकार दार्टान्त बताते हैं - एवं तु सेहेवि अपुट्ठधम्मे, धम्मं न जाणाइ अबुज्झमाणे। से कोविए जिणवयणेण पच्छा, सूरोदए पासति चक्खुणेव ॥१३॥ छाया - एवन्तु शिष्योऽप्यपुष्टथर्मा, धर्म न जानात्यबुध्यमानः । स कोविदो जिनवचनेन पश्चात् सूर्योदये पश्यति चक्षुषेव ॥ अन्वयार्थ - (एवं तु अपुट्ठधम्मे सेहेवि) इसी तरह धर्म में अनिपुण शिष्य भी (अबुज्झमाणे धम्मं न जाणाइ) सूत्रार्थ को न समझता हुआ धर्म को नहीं जानता है । (से जिणवयणेण कोविए) परन्तु वही शिष्य जिनवाक्यों का विद्वान् होकर (पच्छा सूरोदए चक्खुणेव पासति) पश्चात् इस प्रकार धर्म को जान लेता है जैसे सूर्योदय होने पर नेत्र के द्वारा पदार्थों को देखता है। भावार्थ - सूत्र और अर्थ को न जाननेवाला धर्म में अनिपुण शिष्य धर्म के स्वरूप को नहीं जानता है परन्तु वह जिनवचनों का ज्ञाता होकर इस प्रकार धर्म को जान लेता है, जैसे सूर्योदय होने पर नेत्र के द्वारा घटपटादि पदार्थों को जान लेता है । टीका - यथा ह्यसावन्धकारावृतायां रजन्यामतिगहनायामटव्यां मागं न जानाति सूर्योद्गमेनापनीते तमसि पश्चाज्जानाति एवं तु 'शिष्यकः' अभिनवप्रव्रजितोऽपि सूत्रार्थानिष्पन्नः अपुष्ट:-अपुष्कलः सम्यगपरिज्ञातो धर्मः-श्रुत ५८४
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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