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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा १
श्रीयाथातथ्याध्ययनम् करता है । वस्तुतः विचार करने पर उन क्रियाओं का काल और उनकी समाप्ति का काल एक ही है, इसलिए किया जाता हुआ भी किया हुआ कहा जाता है । यह व्यवहार लोक में भी देखा जाता है। जैसे कि- आज ही कान्यकुब्ज जाने के लिए देवदत्त के निकलने पर कहते हैं कि- "देवदत्त कान्यकुब्ज गया ।" एवं पायली बनाने के लिए लकड़ी काटते समय ही कहते है कि "यह पायली है ।" अब निर्युक्तिकार सर्वज्ञ के मत को दूषित करनेवाले पुरुषों का नाश होना बताते हुए उपदेश देते हैं- जो मनुष्य थोड़ीसी विद्या के घमण्ड से उत्तेजित होकर सर्वज्ञ के वचन के अंश मात्र की भी अन्यथा व्याख्या करता है, वह संयम और तप में उद्योग करता हुआ भी शारीरिक और मानसिक दुःखों से मुक्ति प्राप्त नहीं करता है । आत्मगर्व से जिसका मन बिगड़ गया है, वह दुःख से मुक्त नहीं होता है, इसलिए साधु पुरुष "मैं ही सिद्धान्त अर्थ को जानता हूँ, मेरे समान दूसरा कोई पुरुष नहीं हैं ।" इस प्रकार का अभिमान छोड़ देवे । तथा ज्ञानी पुरुष दूसरे भी जाति आदि के मदों का त्याग करे फिर ज्ञान मद के त्याग की तो बात ही क्या है ? । अत एव कहा है कि
"ज्ञानम्" अर्थात् ज्ञान, मद और दर्प को हरण करता है परन्तु जो उस ज्ञान से ही मतवाला हो जाता है उसके लिए वैद्य कौन है ? | औषध ही जिसको जहर हो जाता है, उसकी चिकित्सा किस तरह की जा सकती है ? ।।१२२-१२६ ॥
नामनिक्षेप समाप्त हुआ अब सूत्रालापक निक्षेप का अवसर है। वह सूत्र होने पर होता है और सूत्र सूत्रानुगम होने पर होता है इसलिए अब सूत्रानुगम का अवसर है । उस सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए वह सूत्र यह है
आहत्तहीयं तु पवेयइस्सं, नाणप्पकारं पुरिसस्स जातं ।
सओ अ धम्मं असओ असीलं, संतिं असंतिं करिस्सामि पाउं
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छाया - याथातथ्यन्तु प्रवेदयिष्यामि, ज्ञानप्रकारं पुरुषस्य जातम् । सतश्च धर्ममसतश्चाशीलं शान्तिमशान्ति करिष्यामि प्रादुः ||
अन्वयार्थ - (आहत्तहीयं तु पवेयइस्सं ) मैं याथातथ्य यानी सच्चे तत्त्व को बताऊँगा (नाणप्पकारं) तथा ज्ञान के प्रकार यानी सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रहस्य को कहूँगा (पुरिसस्स जातं) एवं जीवों के भले और बुरे गुणों को कहूँगा (सओ अ धम्मं ) तथा उत्तम साधुओं का शील (असओ असीलं) एवं बुरे साधुओं का कुशील भी बताऊँगा (संतिं असंर्ति पाउं करिस्सामि) तथा शान्ति यानी मोक्ष और अशान्ति यानी संसार का स्वरूप भी प्रकट करूँगा ।
भावार्थ - श्रीसुधर्मास्वामी कहते हैं कि मैं सच्चा तत्त्व और ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं जीवों के भले और बुरे गुण तथा साधुओं के शील और असाधुओं के कुशील और मोक्ष तथा बन्ध के रहस्य को प्रकट करूँगा ।
टीका अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्ध:, तद्यथा - वलयाविमुक्तेत्यभिहितं भाववलयं रागद्वेषौ ताभ्यां विनिर्मुक्तस्यैव याथातथ्यं भवतीत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य सूत्रस्य व्याख्या प्रतन्यते - यथातथाभावो याथातथ्यं तत्त्वं परमार्थः, तच्च परमार्थचिन्तायां सम्यग्ज्ञानादिकं तदेव दर्शयति- 'ज्ञानप्रकार' मिति प्रकारशब्द आद्यर्थे, आदिग्रहणाच्च सम्यग्दर्शनचारित्रे गृह्येते, तत्र सम्यग्दर्शनम् - औपशमिक क्षायिकक्षायोपशमिकं गृह्यते, चारित्रं तु व्रतसमितिकषायाणां धारणरक्षणनिग्रहादिकं गृह्यते, एतत्सम्यग्ज्ञानादिकं 'पुरुषस्य' जन्तोर्यज्जातम् - उत्पन्नं तदहं 'प्रवेदयिष्यामि' कथयिष्यामि, तुशब्दो विशेषणे, वितथाचारिणस्तद्दोषांश्चाविर्भावयिष्यामि, 'नानाप्रकारं' वा विचित्रं पुरुषस्य स्वभावम् - उच्चावचं प्रशस्ताप्रशस्तरूपं प्रवेदयिष्यामि । नानाप्रकारं स्वभावं फलं च पश्चार्धेन दर्शयति- 'सतः' सत्पुरुषस्य शोभनस्य सद्नुष्ठायिनः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवतो 'धर्मं ' श्रुतचारित्राख्यं दुर्गतिगमनधरणलक्षणं वा तथा 'शीलम्' उद्युक्तविहारित्वं तथा 'शान्तिं' निर्वृतिमशेषकर्मक्षयलक्षणां 'करिस्सामि पाउ' त्ति प्रादुष्करिष्ये प्रकटयिष्यामि यथावद् उद्भावयिष्यामि, [ग्रन्थाग्रं. ७०००] तथा 'असतः' अशोभनस्य परतीर्थिकस्य गृहस्थस्य वा पार्श्वस्थादेर्वा, चशब्दसमुच्चितमधर्मं - पापं तथा 'अशीलं ' कुत्सितशीलमशान्तिं च-अनिर्वाणरूपां संसृतिं प्रादुर्भावयिष्यामीति । अत्र च सतो धर्मं शीलं शान्तिं च प्रादुष्करिष्यामि, असतश्चाधर्ममशीलमशान्तिं चेत्येवं पदघटना
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