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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा २१
श्रीसमवसरणाध्ययनम् वह लोक के अग्र भाग में जो आकाश देशरूप स्थान है, तत्स्वरूप है । वह सिद्धि सादि और अनन्त है । तथा जो द्रव्यास्तिक नय के अनुसार समस्त पदार्थों को नित्य और पर्यायनय के अनुसार सबको अनित्य यानी प्रतिक्षणविनाशी जानता है तथा च शब्द से जो सब वस्तुओं को नित्य और अनित्य उभय स्वरूप जानता है, अत एव आगम कहता है कि-"नारक, द्रव्यार्थ नय से नित्य हैं ओर पर्याय नय से अनित्य हैं' इसी तरह दूसरे तिर्यञ्च आदि को भी उभयस्वरूप जानना चाहिए । अथवा निर्वाण को शाश्वत कहते हैं और संसार को अशाश्वत कहते हैं क्योंकि संसारी जीव अपने-अपने कर्म के वशीभूत होकर इधर, उधर जाते हैं तथा जो नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवता के जन्मरूप जाति को जानता है तथा आयुष्य के क्षयरूप मरण को जानता है एवं जीवों के उपपात को जो जानता है, जीवों का उपपात नारक और देव में होता है परन्तु यहां जन्म का विचार करने पर जीवों की उत्पत्तिस्थान योनि कहनी चाहिए । वह योनि, सचित्त, अचित्त, मिश्र, तथा शीत, उष्ण, मिश्र, और संवृत, विवृत, मिश्र होती है, इस प्रकार योनियों के २७ सत्ताईस भेद हैं । तिर्यञ्च और मनुष्य का मरण होता है तथा ज्योतिष्क और वैमानिक का च्यवन होता है, भवनपति, व्यन्तर, और नारकों की उद्वर्तना होती है ॥२०॥
अहोऽवि सत्ताण विउट्टणं च, जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणति निज्जरं च, सो भासिउमरिहइ किरियवादं
॥२१॥ छाया - अधोऽपि सत्त्वानां विकुटनाच, य आसवं जानाति संवरश ।
दुःखश यो जानाति निर्जराश सभाषितुमर्हति क्रियावादम् ।। अन्वयार्थ - (अहोऽवि सत्ताण विउट्टणं च) नरक आदि में जीवों को नाना प्रकार की पीड़ा होती है, यह जो जानता है (जो आसवं संवरं च जाणति) तथा जो आस्रव और संवर को जानता है (जो निज्जरं दुक्खं च जाणति) जो दुःख को तथा निर्जरा को जानता है (सो किरियवाद भासिउमरिहइ) वही ठीक-ठीक क्रियावाद को बता सकता है।
भावार्थ - नरकादि गतियों में जीवों की नाना प्रकार की पीड़ा को जो जानता है तथा जो आस्रव, संवर, दुःख और निर्जरा को जानता है, वही ठीक-ठीक क्रियावाद को बता सकता है ।
टीका - 'सत्त्वानां' स्वकृतकर्मफलभुजामधस्तानारकादौ दुष्कृतकर्मकारिणां विविधां विरूपां वा कुट्टनांजातिजरामरणरोगशोककृतां शरीरपीडां, चशब्दात्तदभावोपायं यो जानाति, इदमुक्तं भवति-सर्वार्थसिद्धादारतोऽधःसप्तमी नरकभुवं यावदसुमन्तः सकर्माणो विवर्तन्ते, तत्रापि ये गुरुतरकर्माणस्तेऽप्रतिष्ठाननरकयायिनो भवन्तीत्येवं यो जानीते । तथा आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म येन स आश्रवः स च प्राणातिपातरूपो रागद्वेषरूपो वा मिथ्यादर्शनादिको वेति तं तथा 'संवरम्' आश्रवनिरोधरूपं यावदशेषयोगनिरोधस्वभावं, चकारात्पुण्यपापे च यो जानीते तथा 'दुःखम्' असातोदयरूपं तत्कारणं च यो जानाति 'सुखं' च तद्विपर्ययभूतं यो जानाति, तपसा यो निर्जरां च, इदमुक्तं भवति-यः कर्मबन्धहेतून तद्विपर्यासहेतूंश्च तुल्यतया जानाति, तथाहि“यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासा, निर्वाणावेशहेतवः ||१||"
स एव परमार्थतो 'भाषितुं' वक्तुमर्हति, किं तद् ? इत्याह-क्रियावादम्, अस्ति जीवोऽस्ति पुण्यमस्ति पापमस्ति च पूर्वाचरितस्य कर्मणः फलमित्येवंरूपं वादमिति । तथाहि-जीवाजीवास्रवसंवरबन्धपुण्यपापनिर्जरामोक्षरूपा नवापि पदार्थाः श्लोकद्वयेनोपात्ताः, तत्र य आत्मानं जानातीत्यनेन जीवपदार्थः, लोकमित्यनेनाजीवपदार्थः, तथा गत्यनागतिः शाश्वतेत्यादिनाऽनयोरेव स्वभावोपदर्शनं कृतं. तथाऽऽश्रवसंवरौ स्वरूपेणैवोपात्तौ, दःखमित्यनेन तु बन्धपुण्यपापानि गृहीतानि, तदविनाभावित्वादुःखस्य, निर्जरायास्तु स्वाभिधानेनैवोपादानं, तत्फलभूतस्य च मोक्षस्योपादानं द्रष्टव्यमिति, तदेवमेतावन्त एव पदार्थास्तदभ्युपगमेन चास्तीत्यादिकः क्रियावादोऽभ्युपगतो भवतीति, यश्चैतान् पदार्थान् 'जानाति' अभ्युपगच्छति स परमार्थतः क्रियावादं जानाति । ननु चापरदर्शनोक्तपदार्थपरिज्ञानेन सम्यग्वादित्वं कस्मान्नाभ्युपगम्यते?, 1. आदिनाऽशाश्वतं । 2. अजीवपक्षेऽनागतिः स्थितिः यद्वा जीवानां ते अजीवकृते इति 3. वैषयिकसुखस्य दुःखरूपत्वान्न दुःखस्य पुण्याविनाभावत्वानुपपत्तिः 4. ज्ञानाच्छ्रद्धा ततः प्ररूपणेति सम्यगवादित्वशङ्का ।
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