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________________ श्रीसमवसरणाध्ययनम् सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा २० हैं, वे ही पुरुष आगम के ज्ञाता होकर चौदह रज्जुस्वरूप अथवा पञ्चास्तिकाय स्वरूप इस लोक का दूसरे के प्रति उपदेश करते हैं ॥१९॥ अत्ताण जो जाणति जो य लोगं, गईं च जो जाणइ णागईं च । जो सासयं जाण असासयं च, जातिं (च) मरणं च जणोववायं 112011 छाया - आत्मानं यो जानाति यश्च लोकं गतिं यो जानात्यनागति । यः शाश्वतं जानात्यशाश्वतच, जातिय मरणस जनोपपातम् ॥ अन्वयार्थ - ( जो अत्ताणं जाणति) जो आत्मा को जानता है। (जो लोगं) जो लोक को जानता है ( गई च णागई च जाणति ) तथा जो जीवों की गति और अनागति को जानता है (जो सासयं असासयं जातिं मरणं च जणोववायं जाण) एवं जो नित्य, अनित्य, जन्म, मरण और प्राणियो के नाना गतियों में जाना जानता है । - भावार्थं जो अपने आत्मा को जानता है तथा लोक के स्वरूप को जानता है एवं जो शाश्वत यानी मोक्ष और अशाश्वत यानी संसार को जानता है तथा जो जन्म, मरण और प्राणियों के नाना गतियों में जाना जानता है । टीका - यो ह्यात्मानं परलोकयायिनं शरीराद्व्यतिरिक्तं सुखदुःखाधारं जानाति यश्चात्महितेषु प्रवर्तते स आत्मज्ञो भवति । येन चात्मा यथावस्थितस्वरूपोऽहंप्रत्ययग्राह्यो 'निर्ज्ञातो भवति तेनैवायं सर्वोऽपि लोकः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो विदितो भवति, स एव चात्मज्ञोऽस्तीत्यादिक्रियावादं भाषितुमर्हतीति द्वितीयवृत्तस्यान्ते क्रिया । यश्च "लोकं" चराचरं वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारं चशब्दादलोकं चानन्ताकाशास्तिकायमात्रं जानाति, यश्च जीवानाम् 'आगतिम्' आगमनं कुतः समागता नारकास्तिर्यञ्चो मनुष्या देवाः ? कैर्वा कर्मभिर्नारकादित्वेनोत्पद्यन्ते ? एवं यो जानाति, था 'अनागतिं च' अनागमनं च, कुत्र गतानां नागमनं भवति ? चकारात्तद्गमनोपायं च सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्रात्मकं यो जानाति, तत्रानागतिः-सिद्धिरशेषकर्मच्युतिरूपा लोकाग्राकाशदेशस्थानरूपा वा ग्राह्या, सा च सादिरपर्यवसाना । यश्च 'शाश्वतं ' नित्यं सर्ववस्तुजातं द्रव्यास्तिकनयाश्रयाद् 'अशाश्वतं ' वाऽनित्यं प्रतिक्षणविनाशरूपं पर्यायनयाश्रयणात्, चकारान्नित्यानित्यं चोभयाकारं सर्वमपि वस्तुजातं यो जानाति, तथा ह्यागमः - 2'' णेरइया दव्वट्टयाए सासया भावट्ठयाए असासया'" एवमन्येऽपि तिर्यगादयो द्रष्टव्याः । अथवा निर्वाणं शाश्वतं संसार:- अशाश्वतस्तद्गतानां संसारिणां स्वकृतकर्मवशगानामितश्चेतश्च गमनादिति । तथा 'जातिम्' उत्पत्तिं नारकतिर्यङ्गनुष्यामरजन्मलक्षणां 'मरणं च' आयुष्कक्षयलक्षणं, तथा जायन्त इति जनाः - सत्त्वास्तेषामुपपातं यो जानाति, स च नारकदेवयोर्भवतीति, अत्र च जन्मचिन्तायामसुमतामुत्पत्तिस्थानं योनिर्भणनीया, सा च सचित्ताऽचित्ता, मिश्रा च तथा शीता, उष्णा, मिश्रा च तथा संवृता, विवृता, मिश्रा चेत्येवं सप्तविंशतिविधेति । मरणं पुनस्तिर्यमनुष्ययोः, च्यवनं - ज्योतिष्कवैमानिकानाम् उद्वर्तनाभवनपतिव्यन्तरानारकाणामिति ॥२०॥ किञ्च - टीकार्थ जो पुरुष आत्मा को परलोक में जानेवाला, शरीर से भिन्न और सुख-दुःख का आधार जानता है तथा जो आत्मा के कल्याण साधन में प्रवृत्त होता है, वही पुरुष आत्मज्ञ है । जो पुरुष, अहं इस प्रतीति से ग्रहण करने योग्य आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है, वही प्रवृत्ति, निवृत्तिरूप इस समस्त लोक को भी जानता है । वह आत्मज्ञ पुरुष ही, "जीवादि पदार्थ हैं" इस क्रियावाद का भाषण करता है । तथा नृत्यशाला में कमरपर दोनों हाथ रखकर खड़े हुए पुरुष के समान इस चराचर विश्व को जो जानता है तथा च शब्द से अलोक यानी अनन्त आकाशास्तिकाय को जो जानता है एवं जो जीवों के आगमन को जानता है अर्थात् ये नारक, तिर्य्यञ्च, मनुष्य और देवता कहाँ से आये हैं अथवा किन कर्मों के करने से जीव नरक आदि में उत्पन्न होते हैं, यह जो जानता है तथा कहाँ जाकर फिर जीव वापिस नहीं आते हैं तथा चकार से वहाँ जाने के उपाय जो सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं, उन्हें जो जानता है, यहाँ अनागति, सिद्धि को कहते हैं, वह समस्त कर्मों का क्षय स्वरूप है अथवा 1. ०भिज्ञातो प्र० । 2. नैरयिका द्रव्यार्थतया शाचता भावार्थतया अशाचताः । ५३३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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