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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा ५ श्रीसमवसरणाध्ययनम् तुम्हारा पक्ष यदि शून्य है तो वह मेरे पक्ष को कैसे निवारण कर सकता है ? और यदि तूं शून्य नहीं मानता है तो तुम्हारा माना हुआ पक्ष मेरा ही हुआ । इस प्रकार बौद्ध पूर्वोक्त नीति से मिश्र पक्ष को प्राप्त हैं. वे पदार्थो का नास्तित्व बताते हुए उससे विपरीत अस्तित्व का ही प्रतिपादन करते हैं। इसी तरह सांख्यवादी भी आत्मा को सर्वव्यापक मानकर उसे क्रियारहित स्वीकार करके भी प्रकृति के वियोग से उसकी मुक्ति कहते हैं । अतः वे अपने वचन से ही आत्मा का बन्ध और मोक्ष बतलाते हैं। कि आत्मा का बन्ध और मोक्ष होता है तब उनकी वाणी से ही आत्मा का क्रियावान् होना भी स्वीकृत हो जाता है, इसलिए सांख्यवादी भी मिश्र पक्ष को ही प्राप्त हैं, क्योंकि क्रिया के बिना बन्ध और मोक्ष होना नहीं बन सकता है । वा शब्द से यह बताया जाता है कि सांख्यवादी आत्मा को क्रियारहित सिद्ध करते हुए अपने वाक्य से ही उसे क्रियावान् कह बैठते हैं । इस प्रकार लोकायतिक सब पदार्थो का अभाव मानकर क्रिया का अभाव बतलाते हैं और बौद्ध सब पदार्थों को क्षणिक तथा शून्य मानकर क्रिया का अभाव स्वीकार करते हैं परन्तु जब उनसे पूछा जाता है कि- "यदि सब पदार्थ हैं ही नहीं तो तुम शास्त्र की रचना क्यों और कैसे करते हो" तब वे वचन से ही मिश्र वाक्य को स्वीकार करते हैं । इसी तरह सांख्यवादी आत्मा को क्रिया रहित स्वीकार करके भी फिर उसका बन्ध मोक्ष मानकर क्रियावान् स्वीकार करते हुए मिश्रभाव का आश्रय लेते हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त सभी अक्रियावादी अपने पक्ष का साधन करते हए उससे विपरीत क्रियावाद पक्ष का साधन कर बैठते हैं । यह हमने पहले बता दिया है, इसलिए पुनरुक्ति की आवश्यकता नहीं। अथवा स्याद्वादी सम्यग् हेतु और दृष्टान्तों को आगे रखकर जब बौद्ध आदि के मतों का निराकरण करने लगते हैं, तब वे घबराकर उचित उत्तर देने में समर्थ नहीं होते हैं, किन्तु असम्बद्ध प्रलाप करते हए अव्यक्त बड़बड़ाहट करने लगते हैं। अथवा प्राकृत की शैली के अनुसार छान्दस होने के कारण इसका अर्थ यह जानना चाहिए - स्याद्वादियों के द्वारा सम्यग् हेतु और दृष्टान्त बताये जाने पर वे बौद्ध आदि मूक से भी मूक हो जाते हैं, यही शास्त्रकार बताते हैं कि स्याद्वादियों के द्वारा कहे हुए सम्यग् हेतु को वे बौद्ध आदि अनुवाद भी नहीं करते है फिर उत्तर देने की तो बात ही क्या है ? । वे, स्याद्वादियों के द्वारा कहे हुए और दृष्टान्तों से घबराकर मौन का अवलम्बन करते है । स्याद्वादियों ने बौद्ध आदि के विरुद्ध जो हेतु और दृष्टान्त बताये हैं उनका अनुवाद किये बिना ही तथा उनका उत्तर दिये बिना ही वे अपने पक्ष का प्रतिपादन करते हैं । वे कहते हैं कि हमारा दर्शन विरुद्ध पक्ष से रहित होने के कारण एक पक्षवाला है तथा परस्पर विरुद्ध अर्थ न बताने के कारण यह पूर्वापर विरोध रहित निर्बाध है परन्तु यह बात मिथ्या है क्योंकि इनका दर्शन पूर्वापर विरुद्ध अर्थ को जिस प्रकार बताता है सो हम पहले कह चुके हैं । अथवा जैनाचार्य कहते हैं कि यह हमारा दर्शन द्विपक्ष यानी दो पक्षोंवाला है क्योंकि कर्मबन्ध की निर्जरा के विषय में इस दर्शन में दो पक्ष माने गये हैं, जैसे कि- जीव अपने कर्म का फल चोर और परस्त्रीलम्पट के समान इसलोक और परलोक दोनों ही लोकों में प्राप्त करता है। चोर और परस्त्रीलम्पट पुरुष इस लोक में हाथ पैर और नासिका का छेदनरूप दुःख प्राप्त करते हैं जो उनके कर्म का फूल के समान है तथा परलोक में नरकादि यातनाओं को प्राप्त करते हैं जो उनके कर्मों के फल के समान है। जैसे चोरी और परस्त्रीप्रसङ्ग रूप कर्म के फल दोनों लोकों में भोगने पड़ते हैं, इसी तरह दूसरे शुभाशुभ कर्मों के फल भी दोनों लोकों में भोगे जाते हैं। अतः जैनदर्शन ऐसा सिद्धान्त मानने के कारण दो पक्षवाला है परन्तु बौद्धादि दर्शन ऐसे नहीं हैं, वे एक पक्ष वाले हैं। वे कहते हैं कि कर्म का सी जन्म में भोगा जाता है. दसरे लोक में नहीं यह "प्राणी प्राणिज्ञानम्" इत्यादि स्थल में कहा गया है। तथा वे कहते हैं कि अविज्ञोपचित, परिज्ञोपचित, स्वप्नान्तिक और ई-पथ कर्मो का बन्ध केवल स्पर्शमात्र होता है परन्तु उसका फल परलोक में नहीं होता है, अतः वे एक पक्षवाले हैं। इस प्रकार स्याद्वादी जब उनके मत में दोष बताते हैं तब वे पूर्वोक्त नीति का आश्रय लेकर अपने दर्शन को ही उत्तम बताते हैं और स्याद्वादियों के बताये हुए सम्यग् हेतु में छल का प्रयोग करते हैं, जैसे कि - देवदत्त का कम्बल नया है, इस अभिप्राय से कहे हुए "नवकम्बलो देवदत्तः" इस वाक्य को नव शब्द का संख्या अर्थ करके कोई प्रतिषेध करता है, उसी तरह बौद्धादिकों ने जैनों के सद्धेतुओं में छल का प्रयोग किया है और च शब्द से दूसरे भी अयुक्त दूषण बताये हैं. तथा बौद्धों ने अपने दर्शन में कर्म को एक पक्ष और दो पक्ष आदि भी माना है अथवा वे बौद्ध आदि कर्म को सम्यग हत और दुष्टान्ता सपना
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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