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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा २४ श्रीसमाध्यध्ययनम् अध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराह अब शास्त्रकार इस अध्ययन में कही हुई बात को समाप्त करते हुए कहते हैं निक्खम्म गेहाउ निरावकखी, कायं विउसेज्ज नियाणछिन्ने । णो जीवियं णो मरणाभिकंखी, चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के ||२४|| त्ति बेमि || इति समाहिनाम दसममज्झयणं समत्तं (गाथाग्रं ५८० ) - छाया - निष्क्रम्य गेहात्तु निरवकाङ्क्षी, कायं व्युत्सृजेच्छिन्ननिदानः । नो जीवितं नो मरणमवकाङ्क्षी, चरेद्भिक्षुर्वलयाद् विमुक्तः । अन्वयार्थ - (गेहाउ निक्खम्म) साधु घर से निकलकर यानी प्रव्रज्या धारण करके । (निरावकंखी) अपने जीवन में निरपेक्ष हो जाय (कायं विउसेज्ज) तथा शरीर का व्युत्सर्ग करे ( नियाणच्छिन्ने ) तथा वह अपने तप के फल की कामना न करे ( वलया विमुक्के) एवं संसार से मुक्त होकर (णो जीवियं णो मरणाभिकंखी चरेज्ज) वह जीवन और मरण की इच्छा न रखता हुआ विचरे । भावार्थ - प्रव्रज्या धारण किया हुआ पुरुष अपने जीवन से निरपेक्ष होकर काय का व्युत्सर्ग करे एवं वह अपने तप के फल की भी इच्छा न करे इस प्रकार जीवन और मरण की इच्छा छोड़कर संसारी संकटों से अलग रहता हुआ साधु विचरे । टीका - गेहान्निःसृत्य "निष्क्रम्य च" प्रव्रजितोऽपि भूत्वा जीवितेऽपि निराकाङ्क्षी "कायं" शरीरं व्युत्सृज्य निष्प्रतिकर्मतया चिकित्सादिकमकुर्वन् छिन्ननिदानो भवेत्, तथा न जीवितं नापि मरणमभिकाङ्क्षेत् "भिक्षुः " साधुः “वलयात्’'संसारवलयात्कर्मबन्धनाद्वा विप्रमुक्तः संयमानुष्ठानं चरेत् इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ||२४|| ॥ इति श्रीसमाध्याख्यं दशममध्ययनं समाप्तं ॥ टीकार्थ घर से निकलकर साधु बनकर पुरुष जीवन में आकांक्षा न करे तथा शरीर का मोह छोड़कर उसका शोधन और दवा आदि न करता हुआ निदान का छेदन करे । इसी तरह साधु जीवन और मरण की इच्छा न करे । एवं वलय अर्थात् संसारवलय अथवा कर्मबन्धन से मुक्त होकर संयम का अनुष्ठान करे । इति समाप्त्यर्थक है । ब्रवीमि पूर्ववत् है । यह समाधिनामक दशम अध्ययन समाप्त हुआ ||२४||
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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