________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ३६
भावधर्ममध्ययन 'अनिश्रितः' असम्बद्धोऽप्रवृत्त इत्यर्थः, उपसंहर्तुकाम आह-'सर्वमेतद्' अध्ययनादेरारभ्य प्रतिषेध्यत्वेन यत् लपितम्उक्तं मया बहु तत् 'समयाद्' आर्हतादागमादतीतमतिक्रान्तमितिकृत्वा प्रतिषिद्धं, यदपि च विधिद्वारेणोक्तं तदेतत्सर्व कुत्सितसमयातीतं लोकोत्तरं प्रधानं वर्तते, यदपि च तैः कुतीर्थिकैर्बहु लपितं तदेतत्सर्वं समयातीतमितिकृत्वा नानुष्ठेयमिति ॥३५॥
टीकार्थ - शब्द आदि है और स्पर्श अन्त है, इसलिए इन दोनों के ग्रहण से बीचले विषयों का भी यहां ग्रहण जानना चाहिए । मनोहर शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में साधु आसक्त न हो तथा अमनोहर शब्दादि में वह द्वेष भी न करे तथा सावध अनुष्ठान में साधु प्रवृत न हो । इस अध्ययन के आदि से लेकर निषेध रूप से जो मैंने बहुत बातें बतायी हैं, वे जिनागम से विरुद्ध होने के कारण निषिद्ध हैं। तथा जिनका मैने विधान किया
यों के सिद्धान्तों से विरुद्ध होने के कारण लोकोत्तर उत्तम धर्म हैं। तथा कतीर्थियों को ने अपने दर्शनों में जो बहुत कुछ कहा है, उन्हें जिनागम से विरुद्ध जानकर आचरण नहीं करना चाहिए ॥३५॥
- प्रतिषेध्यप्रधाननिषेधद्वारेण मोक्षाभिसन्धानेनाह
- निषेध करने योग्य वस्तुओं में जो प्रधान है, उसका निषेध करते हुए, शास्त्रकार मोक्ष प्राप्ति के आशय से कहते हैंअइमाणं च मायं च, तं परिण्णाय पंडिए । गारवाणि य सव्वाणि, णिव्वाणं संधए मुणि त्ति बेमि
॥३६॥ इति श्रीधम्मनाम नवममज्झयणं समत्तं । छाया - अतिमानश मायाश, तत् परिज्ञाय पण्डितः । गौरवाणि च सर्वाणि, निर्वाणं संधयेन्मुनिः ॥
अन्वयार्थ - (पंडिए मुणि) पण्डित मुनि, (अइमाणं च मार्य च) अतिमान-माया (सव्वाणि गारवाणि य) और सब प्रकार के गारवादि विषय भोगों को (परिण्णाय) त्याग कर (निव्वाणं) निर्वाण की (संधये) प्रार्थना करे ।
भावार्थ - विद्वान् मुनि अतिमान, माया और सब प्रकार के विषय भोगों को त्याग कर मोक्ष की प्रार्थना करे ।
टीका - अतिमानो महामानस्तं, चशब्दात्तत्सहचरितं क्रोधं च, तथा मायां चशब्दात्तत्कार्यभूतं लोभं च, तदेतत्सर्वं 'पण्डितो' विवेकी ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत्, तथा सर्वाणि 'गारवाणि' ऋद्धिरससातरूपाणि सम्यग् ज्ञात्वा संसारकारणत्वेन परिहरेत्, परिहृत्य च 'मुनिः' साधुः 'निर्वाणम्' अशेषकर्मक्षयरूपं विशिष्टाकाशदेशं वा 'सन्धेयत्' अभिसन्दध्यात् प्रार्थयेदिति यावत् । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३६॥ समाप्तं धर्माख्यं नवममध्ययनमिति ॥
टीकार्थ - अतिमान अर्थात् महान् मान तथा च शब्द से उसका सहचारी क्रोध तथा माया और च शब्द से माया का कार्य्य लोभ इनको विवेकी पुरुष ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे । तथा ऋद्धि रस और सुखरूप सब गौरवों को संसार का कारण जानकर मुनि छोड़ देवे और समस्त कर्मों का क्षयरूप अथवा आकाश का विशिष्ट देश स्वरूप जो निर्वाण पद है, उसकी प्रार्थना करे । इति शब्द समाप्ति अर्थ में है, ब्रवीमि पूर्ववत् है।।३६।।
यह धर्मनामक नवम अध्ययन समाप्त हुआ ।
४४१