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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा १०-११ परसमयवक्तव्यतायांअज्ञानवादाधिकारः - एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य सूत्रकार एव दार्टान्तिकमज्ञानविपाकं दर्शयितुमाह - - इस प्रकार दृष्टान्त दिखलाकर सूत्रकार दार्टान्त रूप अज्ञान का फल दिखाने के लिए कहते हैं - एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिआ । असंकिआई संकंति, संकिआइं असंकिणो ॥१०॥ छाया - एवं तु श्रमणा एके मिथ्यादृष्टयोऽनााः । अशङ्कितानि शङ्कन्ते शङ्कितान्यशतिनः ॥ व्याकरण - (एवं तु) अव्यय (एगे मिच्छदिट्ठी अणारिया) श्रमण के विशेषण (समणा) कर्ता (संकति) क्रिया (संकिआई) कर्म (असंकिणो) कर्ता का विशेषण । अन्वयार्थ - (एवं तु) इस प्रकार (एगे) कोई (मिच्छदिट्ठी) मिथ्यादृष्टि (अणारिया) अनार्य (समणा) श्रमण (असंकिआई) शङ्का रहित अनुष्ठानों में (संकति) शङ्का करते हैं (संकिआई) तथा शङ्का सहित अनुष्ठानों में (असंकिणो) शङ्का नहीं करते। भावार्थ - इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि अनार्य कोई श्रमण शङ्का रहित अनुष्ठानों में शङ्का करते हैं और शङ्का योग्य अनुष्ठानों में शङ्का नहीं करते हैं। टीका - एवमिति यथा मृगा अज्ञानावृता अनर्थमनेकशः प्राप्नुवन्ति तरवधारणे, एवमेव श्रमणाः केचित पाखण्डविशेषाश्रिता एके न सर्वे, किम्भूतास्ते, इति दर्शयति-मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्येषामज्ञानवादिनां नियतिवादिनां वा ते मिथ्यादृष्टयः, तथा अनार्या आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः, न आर्या अनार्या अज्ञानावृतत्वादसदनुष्ठायिन इति यावद् । अज्ञानावृतत्वं च दर्शयति-अशङ्कितानि अशङ्कनीयानि सुधर्मानुष्ठानादीनि शङ्कमानाः, तथा शङ्कनीयानि अपायबहुलानि एकान्तपक्षसमाश्रयणानि अशङ्किनो मृगा इव मूढचेतसस्तत्तदाऽऽरम्भन्ते यद्यदनाय सम्पद्यत इति।।१०।। ___टीकार्थ - जैसे अज्ञानी मृग अनेक प्रकार के अनर्थ को प्राप्त करते हैं, इसी तरह पाखण्डविशेष को स्वीकार करनेवाले कोई श्रमण अनेक अनर्थों को प्राप्त करते हैं, परन्तु सब नहीं । यहाँ 'तु' शब्द अवधारणार्थक है । वे श्रमण कैसे हैं ? यह सूत्रकार दिखाते हैं । जिनकी दृष्टि, मिथ्या यानी विपरीत है, वे अज्ञानवादी अथवा नियतिवादी मिथ्यादृष्टि हैं । जो सब वर्जनीय धर्मों से दूर रहता है, उसे आर्य कहते हैं, जो इससे भिन्न हैं, वे अनार्य हैं। अर्थात् अज्ञान से आवृत होकर जो असत् अनुष्ठान करते हैं, वे अनार्य हैं । पूर्वोक्त अन्यदर्शनी अनार्य हैं। अब सूत्रकार, "वे अन्यदर्शनी अज्ञान से ढंके हुए हैं। यह दिखलाते हैं । वे अन्यदर्शनी शङ्का के अयोग्य सुन्दर धर्म के अनुष्ठान आदि में शङ्का करते हैं तथा शङ्का करने योग्य और पाश से परिपूर्ण एकान्त पक्ष के स्वीकार में शङ्का नहीं करते हैं। मृग के समान मूर्ख वे अन्य दर्शनी जो-जो आरम्भ करते हैं, वह-वह अनर्थ के लिए होता है ॥१०॥ - शङ्कनीयाशङ्कनीयविपर्यासमाह - - अब सूत्रकार, शङ्का के योग्य और शङ्का के अयोग्य धर्मों की विपरीतता बतलाते हैं - धम्मपण्णवणा 'जा सा, तं तु संकति मूढगा । आरंभाइं न संकति अवियत्ता अकोविआ ॥११॥ छाया - धर्मप्रज्ञापना या सा तां तु शङ्कन्ते मूढकाः । आरम्भाव शङ्कन्ते अव्यक्ता अकोविदाः ॥ व्याकरण - (जा, सा,) सर्वनाम (धम्मपण्णवणा) कर्ता (तं) कर्म (तु) अव्यय (संकंति) क्रिया (मूढगा) कर्ता (आरंभाई) कर्म (न) अव्यय (संकंति) क्रिया (अवियत्ता अकोविआ) अन्यतीर्थी के विशेषण । अन्वयार्थ - (जा, सा,) जो वह (धम्मपण्णवणा) धर्म की प्रज्ञापना यानी प्ररूपणा है (तं तु) उसमें तो (मूढगा) वे मूर्ख (संकति) शङ्का करते हैं (आरंभाई) परन्तु आरम्भ में (न संकंति) शङ्का नहीं करते हैं (अवियत्ता) वे अविवेकी हैं (अकोविया) शास्त्रज्ञ नहीं हैं। 1. जा तु तीसे चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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