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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ९ परसमयवक्तव्यतायांअज्ञानवादाधिकारः के (अहे) नीचे होकर (वए) निकल जाय तो (पयपासाओ) पैर के बन्धन से (मुच्चेज्ज) छुट सकता है (तु) परंतु (तं) उसे (मंदे) वह मूर्ख मृग (ण देहए) नहीं देखता है। भावार्थ - वह मृग यदि कूदकर उस बन्धन को लाँघ जाय अथवा उसके नीचे से निकल जाय तो वह पैर के बन्धन से मुक्त हो सकता है, परन्तु वह मूर्ख मृग इसे नहीं देखता है । टीका - अथ अनन्तरमसौ मृगस्तद् ‘बज्झमिति' बद्धं-बन्धनाकारेण व्यवस्थितं वागुरादिकं वा बन्धनं बन्धकत्वाद् बन्धमित्युच्यते तदेवभूतं कूटपाशादिकं बन्धनं यद्यसावुपरि प्लवेत् तदधस्तादतिक्रम्योपरि गच्छेत्, तस्य वादेर्बन्धनस्याधो(वा) गच्छेत् तत एवं क्रियमाणेऽसौ मृगः पदे पाशः पदपाशो-वागुरादिबन्धनं तस्मान्मुच्येत, यदि वा पदं-कूटं पाशः प्रतीतस्ताभ्यां मुच्येत, क्वचित्पदपाशादीति पठयते, आदिग्रहणाद् वधताडनमारणादिकाः क्रियाः गृह्यन्ते, एवं सन्तमपि तमनर्थपरिहरणोपायं मन्दो जडोऽज्ञानावृतो न देहतीति न पश्यतीति ॥८॥ ___टीकार्थ - इसके पश्चात् वह मृग, बन्धनाकार में स्थित, अथवा जो वागुरा आदि बन्धन-बन्धन देने के कारण 'बन्ध' कहे जाते हैं, उनको कूदकर पार कर जाय अथवा चर्ममय उस बन्धन के नीचे होकर चला जाय, तो वह पदपाश रूप उस वागरादि बन्धन से मुक्त हो सकता है। अथवा 'पद' कपट को कहते हैं और 'पाश. बन का नाम प्रसिद्ध है, उन दोनों से वह मृग छुट सकता है । कहीं-कहीं, "पादपाशादि" यह पाठ है । यहाँ आदि शब्द से वध, ताड़न और मारण, आदि क्रियायें ली जाती हैं । वह अज्ञानी मृग, उक्त प्रकार से अनर्थ को दूर करने का उपाय होते हुए भी उसे नहीं देखता है ।।८।। - कूटपाशादिकं चापश्यन् यामवस्थामवाप्नोति तां दर्शयितुमाह - - कूट-पाश आदि को न देखता हुआ वह मृग जिस अवस्था को प्राप्त करता है, उसे दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं - 1अहिअप्पाऽहियपण्णाणे, विसमंतेणुवागते । स बद्धे पयपासेणं, तत्थ घायं नियच्छइ ॥९॥ छाया - अहिताऽऽत्माऽहितप्रज्ञानः विषमान्तेनोपागतः । स बद्धः पदपाशेन तत्र घातं नियच्छति ॥ व्याकरण - (अहिअप्पा) (अहियपण्णाणे) (विसमं तेणुवागते) ये तीनों मृग के विशेषण हैं । (स) मृग का विशेषण (पयपासेणं) बन्धन क्रिया का करण (बद्धे) मृग का विशेषण (तत्थ) अधिकरण (घायं) कर्म (नियच्छइ) क्रिया । अन्वयार्थ - (अहिअप्पा) अहितात्मा (अहियपण्णाणे) अहित ज्ञानवाला (विसमं तेणुवागते) कूटपाशादि युक्त विषम प्रदेश में प्राप्त होकर (स) वह मृग (तत्थ) वहाँ (पयपासेणं) पदबन्धन के द्वारा (बद्धे) बद्ध होकर (घायं) घात को (नियच्छइ) प्राप्त होता हैं । भावार्थ - वह मृग अपना अहित करनेवाला और अहित बुद्धि से युक्त है, वह बन्धन युक्त विषम प्रदेशों में जाकर वहाँ पद बन्धन से बद्ध होकर नाश को प्राप्त होता है । टीका - स मृगोऽहितात्मा तथाऽहितं प्रज्ञानं-बोधो यस्य सोऽहितप्रज्ञानः, स चाहितप्रज्ञानः सन् विषमान्तेन कूटपाशादियुक्तेन प्रदेशेनोपागतः, यदि वा विषमान्ते कूटपाशादिके आत्मान मनुपातयेत्, तत्र चासौ पतितो बद्धश्च तेन कूटादिना पदपाशादीननर्थबहुलान् अवस्थाविशेषान् प्राप्तः, तत्र बन्धने घातं विनाशं नियच्छति प्राप्नोतीति ॥९॥ टीकार्थ - वह मृग अहितात्मा अर्थात् अपना अहित करनेवाला है, तथा वह अहित प्रज्ञान अर्थात् अहित बुद्धिवाला है । वह कूटपाशादि युक्त विषम प्रदेश को प्राप्त करता है अथवा वह अपने को कूटपाश आदि से युक्त विषम प्रदेश में गिरा देता है और वहाँ वह गिरा हुआ, उस कूट आदि के द्वारा बाँधा जाकर पद-पाश आदि अनर्थ बहुल अवस्था विशेष को प्राप्त कर के उस बन्धन में विनाश को प्राप्त करता है ॥९।। 1. अहिते हितपण्णाणा चू । 2. घंतं । 3. तेऽणुवायए इति पाठमाश्रित्य ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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