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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ४ परसमयवक्तव्यतायां नियतिवादाधिकारः शिरःपीड़ा और शूल आदि दुःख जो अपने अङ्ग से उत्पन्न होते हैं वे 'असैद्धिक' दुःख हैं । ये दोनों ही सुख और दुःख पुरुष के अपने उद्योग से उत्पन्न नहीं होते हैं तथा ये काल आदि किसी अन्य पदार्थ के द्वारा भी उत्पन्न नहीं किये जाते हैं । इन दोनों प्रकार के सुख-दुःखों को प्राणी अलग-अलग भोगते हैं । ये सुख-दुःख, प्राणियों को क्यों होते हैं ? यह बताने के लिए नियतिवादी अपना अभिप्राय प्रकट करता है "संगइयं" इत्यादि । सम्यग् अर्थात् अपने परिणाम से जो गति है, उसे 'सङ्गति' कहते हैं । भाव यह है कि- जिस जीव को जिस समय जहाँ जिस सख-दःख को अनभव करना होता है. वह सङ्गति कहलाती है। वह नियति है. उस नियति से जो सुख-दुःख उत्पन्न होता है, उसे 'साङ्गतिक' कहते हैं। पूर्वोक्त प्रकार से प्राणियों के सुख-दुःख आदि उनके उद्योग द्वारा किये हुए नहीं किन्तु उनकी नियति द्वारा किये हुए हैं, इसलिए वे 'साङ्गतिक' कहलाते हैं। प्राणियों को सुख-दुःख का अनुभव क्यों होता है ? इस विवादास्पद विषय में नियतिवादीयों का यह मन्तव्य है । जैसा कि कहा है भाग्यबल से शुभ अथवा अशुभ जो भी मिलनेवाला होता है, वह मनुष्य को अवश्य प्राप्त होता है । महान् प्रयत्न करने पर भी जो होनेवाला नहीं है, वह नहीं होता है और जो होनेवाला है, उसका नाश नहीं होता है ||१||३|| - एवं श्लोकद्वयेन नियतिवादिमतमुपन्यस्यास्योत्तरदानायाह - - इस प्रकार शास्त्रकार दो श्लोकों के द्वारा नियतिवादियों का मत लिखकर, अब उसका उत्तर देने के लिए कहते हैं एवमेयाणि जंपंता, बाला पंडिअमाणिणो । निययानिययं संतं, अयाणंता अबुद्धिया ॥४॥ छाया - एवमेतानि जल्पन्तो बालाः पण्डितमानिनः । नियतानियतं सन्तमजानन्तोऽबुद्धिकाः || व्याकरण - (एवं) अव्यय (एयाणि) कर्म (जपंता) नियतिवादी का विशेषण (पंडिअमाणिणो) नियतिवादी का विशेषण (निययानिययं संतं) कर्म (अयाणंता अबुद्धिया) नियतिवादी का विशेषण । अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (एयाणि) इन बातों को (जंपंता) कहते हुए नियतिवादी (बाला) अज्ञानी हैं (पंडिअमाणिणो) तथापि वे अपने को पण्डित मानते हैं (निययानिययं संतं) सुख दुःख आदि को नियत तथा अनियत दोनों ही प्रकार का (अयाणंता) नहीं जानते हुए वे नियतिवादी (अबुद्धिया) बुद्धिहीन हैं। भावार्थ- पूर्वोक्त प्रकार से नियतिवाद का समर्थन करनेवाले नियतिवादी अज्ञानी होकर भी अपने को पण्डित मानते हैं । सुख-दुःख नियत तथा अनियत दोनों ही प्रकार के हैं, परन्तु बुद्धिहीन नियतिवादी यह नहीं जानते हैं। टीका - एवमित्यनन्तरोक्तस्योपप्रदर्शने । एतानि पूर्वोक्तानि नियतिवादाश्रितानि वचनानि जल्पन्तोऽभिदधतो बाला इव बाला अज्ञाः सदसद्विवेकविकला अपि सन्तः पण्डितमानिन आत्मानं पण्डितं मन्तुं शीलं येषां ते तथा, किमिति त एवमुच्यन्ते ? इति तदाह- यतो 'निययानिययं संतमिति' सुखादिकं किञ्चिन्नियतिकृतम्-अवश्यंभाव्युदयप्रापितं तथा अनियतम्-आत्मपुरुषकारेश्वरादिप्रापितं सन्नियतिकृतमेवैकान्तेनाश्रयन्ति, अतोऽजानानाः सुखदुःखादि-कारणमबुद्धिकाः बुद्धिरहिता भवन्तीति, तथाहि- आर्हतानां किञ्चित्सुखदुःखादि नियतित एव भवति, तत्कारणस्य कर्मणः कस्मिंश्चिदवसरेऽवश्यंभाव्युदयसद्भावान्नियतिकृतमित्युच्यते, तथा किञ्चिदनियतिकृतं च- पुरुषकारकालेश्वर-स्वभावकर्मादिकृतं, तत्र कथञ्चित् सुखदुःखादेः पुरुषकारसाध्यत्वमप्याश्रीयते, यतः क्रियातः फलं भवति क्रिया च पुरुषकारायत्ता प्रवर्तते, तथा चोक्तम्"न दैवमिति सञ्चिन्न्य व्यजेदुद्यममात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ?" ||१|| 1. एवमेताई चू. | 2. पंडितवादिणो चू. । 3. अयाणमाणा चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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