SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ३ परसमयवक्तव्यतायां नियतिवादाधिकारः एव दुःखमपि ज्वरशिरोऽतिशूलादिरूपमङ्गोत्थमसैद्धिक, तदेतदुभयमपि न स्वयं पुरुषकारेण कृतं नाऽप्यन्येन केनचित् कालादिना कृतं वेदयन्त्यनुभवन्ति 'पृथज्जीवाः' प्राणिन इति । कथं तर्हि तत्तेषामभूद् ? इति नियतिवादी ति 'संगडयंत्ति. सम्यकस्वपरिणामेन गति:- यस्य यदा यत्र यत्सखदःखानभवनं सा सङ्गतिनियतिस्तस्यां भवं साङ्गतिकं यतश्चैवं न पुरुषकारादिकृतं सुखदुःखादि अतस्तत्तेषां प्राणिनां नियतिकृतं सांगतिकमित्युच्यते । 'इह' अस्मिन् सुखं- दुःखानुभववादे एकेषां वादिनामाख्यातं तेषामयमभ्युपगमः । तथा चोक्तम् प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भतानां महति क्रतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ||१||३|| टीकार्थ - प्राणिवर्ग जो सुख-दुःख अनुभव करते हैं अथवा एक भव से दूसरे भव में जाते हैं, यह उनके अपने उद्योग के द्वारा किया हुआ नहीं है । इस गाथा में कारण में कार्य का उपचार करके दुःख शब्द से दुःख का कारण ही कहा गया है। यह दुःख शब्द उपलक्षण है। इसलिए इससे सुख आदि का भी ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार कहना यह है कि- यह जो सुख-दुःख का अनुभव होता है, वह जीवों के उद्योग रूप कारण से उत्पन्न किया हुआ नहीं है । तथा वह काल, ईश्वर, स्वभाव और कर्म आदि अन्य पदार्थ के द्वारा भी किया हुआ किस प्रकार हो सकता है ? 'ण' शब्द वाक्यालङ्कार के लिए आया है । यदि अपने-अपने उद्योग के प्रभाव से सुख आदि मिले तो, सेवक, वणिक (बनियाँ) और किसान आदि का उद्योग समान होने पर फल में विभिन्नता तथा फल की अप्राप्ति न हो । किसी को तो सेवा आदि व्यापार न करने पर भी विशिष्ट फल की प्राप्ति देखी जाती है । इससे सिद्ध होता है कि उद्योग से कुछ प्राप्त नहीं होता । किन्तु नियति (भाग्य) से सुख आदि मिलते हैं। यह दूसरे श्लोक के अन्त में कहेंगे । काल, सुख-दुःख आदि का कर्ता नहीं है, क्योंकि वह एकरूप है, इसलिए काल के द्वारा जगत् में फल की विचित्रता नहीं हो सकती । कारण का भेद होने पर कार्य में भेद होता है । कारण भेद न होने पर कार्य भेद नहीं होता है, क्योंकि विरुद्ध धर्म का आश्रय होना, अथवा कारण का भेद होना यही भेद अथवा भेद का कारण है । इसी तरह सुख-दुःख ईश्वर-कृत भी नहीं हैं, क्योंकि वह ईश्वर मूर्त है अथवा अमूर्त ? यदि वह मूर्त है तो प्राकृत (साधारण) पुरुष के समान वह सब पदार्थ का कर्ता नहीं हो सकता । यदि वह अमूर्त है तो आकाश की तरह वह सुतरां क्रिया रहित है। तथा वह ईश्वर यदि रागयुक्त है तब तो हम लोगों के समान होने के कारण वह जगत् का कर्ता नहीं हो सकता । यदि वह वीतराग है तो वह सुरूप, कुरूप, धनवान् और दरिद्ररूप यह विचित्र जगत् को कर नहीं सकता । अतः ईश्वर कर्ता नहीं है। तथा स्वभाव भी सुख-दुःख का कर्ता नहीं हो सकता क्योंकि वह स्वभाव पुरुष से भिन्न है अथवा अभिन्न है ? यदि स्वभाव पुरुष से भिन्न है तो वह पुरुष के सुख दुःखों को उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि वह पुरुष से भिन्न है। यदि स्वभाव पुरुष से भिन्न नहीं है तब तो वह पुरुष ही है और पुरुष सुख-दुःख का कर्ता नहीं है, यह कहा ही गया है । कर्म भी सुख-दुःख का कर्ता नहीं हो सकता क्योंकि वह कर्म, पुरुष से भिन्न है अथवा अभिन्न है ? यदि कर्म पुरुष से अभिन्न है तब तो वह पुरुष मात्र ही है और इस पक्ष में "पुरुष सुख-दुःख का कर्ता नहीं है।" यह पूर्वोक्त दोष आता है । यदि वह कर्म पुरुष से भिन्न है तो वह सचेतन है अथवा अचेतन है? यदि सचेतन है तो एक शरीर में दो चेतन मानने पड़ेंगे। यदि कर्म अचेतन है तब तो वह पाषाण खण्ड के समान स्वयं परतन्त्र है फिर वह सुख-दुःख का कर्ता कैसे हो सकता है ? यह आगे चलकर विस्तार के साथ कहा जायगा, इसलिए यहाँ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है ।। मोक्ष को सिद्धि कहते हैं । उस मोक्ष में जो सुख उत्पन्न होता है उसे 'सैद्धिक' कहते हैं । असिद्धि नाम संसार का है, उस संसार में जो असाता का उदय स्वरूप दुःख उत्पन्न होता है, उसे 'असैद्धिक' कहते हैं । अर्थात् सांसारिक दुःख को असैद्धिक कहते हैं । अथवा सुख और दुःख, ये दोनों ही सैद्धिक और असैद्धिक दोनों प्रकार के होते हैं । फूलमाला, चन्दन और सुन्दर स्त्री आदि के उपभोग रूप सिद्धि से उत्पन्न सुख 'सैद्धिक' है तथा चाबुक से मारना और गर्म लोह से दागना आदि सिद्धि से उत्पन्न दुःख 'सैद्धिक' है एवं जिस का बाह्यकारण ज्ञात नहीं है ऐसा जो आनन्दरूप सुख मनुष्य के हृदय में अचानक उत्पन्न होता है वह 'असैद्धिक' सुख है । तथा ज्वर, ५०
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy