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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा २७ परसमयवक्तव्यतायां अफलवादीत्वाधिकारः दुःखों को भोगते हैं। टीका - 'नानाविधानि' बहुप्रकाराणि 'दुःखानि' असातोदयलक्षणान्यनुभवन्ति पुनः पुनः । तथाहि- नरकेषु करपत्रदारणकुम्भीपाकतप्तायःशाल्मलीसमालिङ्गनादीनि तिर्यक्षु च शीतोष्णदमनाङ्कनताड़नाऽतिभारारोपणक्षुत्तृडादीनि। मनुष्येषु, इष्टवियोगानिष्टसंप्रयोगशोकाक्रन्दनादीनि । देवेषु चाभियोग्येया॑किल्बिषिकत्वच्यवनादीन्यनेकप्रकाराणि दुःखानि ये ते एवंभूता वादिनस्ते पौनःपुन्येन समनुभवन्ति । एतच्च श्लोकार्धं सर्वेषूत्तरश्लोकार्थेष्वेव योज्यम्, शेष सुगमं यावदुद्देशकसमाप्तिरिति ॥२६॥ टीकार्थ - पूर्वोक्त अन्यतीर्थी, असातोदय-रूप नाना प्रकार के दुःखों को बार-बार भोगते हैं । वे, नरक में आरा के द्वारा चीरे जाते हैं, कुम्भीपाक में पकाये जाते हैं, गर्म लोहे में साट दिये जाते हैं तथा शाल्मलि वृक्ष से आलिंगन कराये जाते हैं । तथा तिर्यक् योनि में जन्म लेकर शीत, उष्ण, दमन, अङ्कन, (चिह्नयुक्त किया जाना) ताड़न, अतिभार वहन, और क्षुधा, तृषा का कष्ट सहन आदि दुःखों को भोगते हैं। एवं मनुष्य जन्म में इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, शोक और रोदन आदि दुःखों को भोगते हैं । तथा देवता होकर अभियोगीपन, ईर्ष्या, किल्बिषीपन और पतन (गिरना) आदि अनेक प्रकार के दुःखों को भोगते हैं। आशय यह है कि मिथ्या सिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले वे अन्यतीर्थी पूर्वोक्त दुःखों का बार-बार अनुभव करते हैं । इस श्लोक के उत्तरार्ध का सभी श्लोकों के उत्तरार्ध के साथ संबन्ध करना चाहिए । शेष उद्देश की समाप्ति पर्य्यन्त सुगम है ॥२६।। उच्चावयाणि गच्छंता, गब्भमेस्संति णंतसो। नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे ॥२७॥ त्ति बेमि पढममज्झयणे पढमो उद्देसो समत्तो ॥ ग्रन्थाग्रं (२७) छाया - उच्चावचानि गच्छन्तो गर्भमेष्यन्त्यनन्तशः । ज्ञातपुत्रो महावीर एवमाह जिनोत्तमः ॥ इति व्याकरण - (उच्चावयाणि) गमन क्रिया का कर्म (गच्छंता) अन्यतीर्थी कर्ता का विशेषण (णंतसो) अव्यय (गब्म) कर्म (एस्संति) क्रिया (नायपुत्ते, जिणोत्तमे) महावीर के विशेषण (महावीरे) कर्ता (एवं) अव्यय (आह) क्रिया। अन्वयार्थ - (नायपुत्ते) ज्ञातपुत्र (जिणोत्तमे) जिनोत्तम (महावीरे) श्री महावीर स्वामी ने (एवमाह) यह कहा है कि (उच्चावयाणि) ऊँच नीच गतियों में (गच्छंता) भ्रमण करते हुए वे अन्यतीर्थी (णंतसो) अनन्तबार (गब्ममेस्संति) गर्भवास को प्राप्त करेंगे। भावार्थ - ज्ञातपुत्र जिनोत्तम श्री महावीर स्वामी ने कहा है कि- पूर्वोक्त अफलवादी ऊँच-नीच गतियों में भ्रमण करते हुए बार-बार गर्भवास को प्राप्त करेंगे। टीका - नवरम् 'उच्चावचानी' ति अधमोत्तमानि नानाप्रकाराणि वासस्थानानि गच्छन्तीति, गच्छन्तो भ्रमन्तो गर्भाद्गर्भमेष्यन्ति यास्यन्त्यनन्तशो निर्विच्छेदमिति ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह- ब्रवीम्यहं तीर्थङ्कराज्ञया, न स्वमनीषिकया, स चाहं ब्रवीमि येन मया तीर्थङ्करसकाशाच्छुतम् एतेन च क्षणिकवादिनिरासो द्रष्टव्यः ॥२७॥ इति समयाख्यप्रथमाध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः । टीकार्थ - श्री सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी से कहते हैं कि वे पूर्वोक्त अन्यतीर्थी ऊँच-नीच नाना योनियों में भ्रमण करते हुए अनन्तकाल तक निरन्तर एक गर्भ से निकलकर दूसरे गर्भ में निवास करते रहेंगे । यह, मैं अपनी इच्छा से नहीं किंतु तीर्थङ्कर की आज्ञा से कहता हूँ। जिसने तीर्थङ्कर से साक्षात् सुना है, वही मैं यह कहता हूँ। इस कथन से क्षणभङ्गवाद का निराकरण समझना चाहिए। (क्योंकि क्षणभङ्गवाद मानने पर जिसने तीर्थङ्कर से था, वही इस समय कहता है, यह नहीं हो सकता है क्योंकि सुननेवाला तो उसी समय नष्ट हो गया, वह इस समय है ही नहीं, फिर वह इस समय कैसे कह सकता है ? अतः क्षणभङ्गवाद मिथ्या समझना चाहिए ।) इस प्रकार 'समय' नामक प्रथम अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ । ४६
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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