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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा २४-२६ परसमयवक्तव्यतायां अफलवादीत्वाधिकारः मिथ्यासिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले वे अन्यतीर्थी जन्म को पार नहीं कर सकते हैं ||२३|| ते णावि संधिं णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते दुक्खस्स पारगा ॥२४॥ छाया - ते नाऽपि सन्धिं ज्ञात्वा, न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं, न ते दुःखस्य पारगाः ॥ व्याकरण - पूर्ववत् । अन्वयार्थ - (ते) वे अन्यतीर्थी ( णावि संधि णच्चा णं) सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हैं । (ते जणा धम्मविओ न) और वे धर्म को नहीं जानते हैं। (जे ते उ एवं वाइणो) पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्या सिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले वे अन्यतीर्थी ( दुक्खस्स पारगा न ) दुःख को पार नहीं कर सकते हैं । भावार्थ - वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हैं तथा वे धर्मज्ञ नहीं हैं । पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्यासिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले वे अन्यतीर्थी दुःख को पार नहीं कर सकते हैं ||२४|| ते णावि संधिं णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते मारस्स पारगा ।।२५।। छाया - ते नाऽपि सन्धिं ज्ञात्वा, न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं, न ते मारस्य पारगाः ॥ व्याकरण - पूर्ववत् । अन्वयार्थ (ते) वे अन्यतीर्थी (णावि संधि णच्चा णं) सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हैं । (ते जणा धम्मविओ न ) वे लोग धर्म नहीं जानते हैं । (जे ते उ एवं वाइणो) पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्यासिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले वे अन्यतीर्थी ( न मारस्स पारगा) मृत्यु को पार नहीं कर सकते हैं । - भावार्थ - वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हैं। वे धर्म को नहीं जानते हैं, अतः पूर्वोक्त मिथ्यासिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले वे लोग मृत्यु को पार नहीं कर सकते हैं । टीका तथा च न ते वादिनः संसारगर्भजन्मदुःखमारादिपारगा भवन्तीति ॥ २१||२२||२३||२४||२५|| टीकार्थ पूर्वोक्त मिथ्या सिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले वे मतवादी, संसार, गर्भ, जन्म, दुःख और मृत्यु को पार नहीं कर सकते हैं ||२१||२२||२३||२४||२५|| - यत्पुनस्ते प्राप्नुवन्ति तद्दर्शयितुमाह पूर्वोक्त मिथ्या - सिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले अन्यतीर्थी जो क्लेश पाते हैं, उसे बताने के लिए सूत्रकार - कहते हैं नाणाविहाईं दुक्खाईं अणुहोंति पुणो पुणो । संसारचक्कवालंमि, मच्चुवाहिजराकुले ॥२६॥ छाया - नानाविधानि दुःखान्यनुभवन्ति पुनः पुनः । संसारचक्रवाले मृत्युव्याधिजराकुले ॥ इति ब्रवीमि| व्याकरण - (नाणाविहाई) दुःख का विशेषण ( दुक्खाई) अनुभव का कर्म । ( अणुहति) क्रिया (पुणो पुणो ) अव्यय (संसारचक्कवालंमि) अधिकरण ( मच्चुवाहिजराकुले) अधिकरण का विशेषण अन्वयार्थ - ( मच्चुवाहिजराकुले) मृत्यु, व्याधि और वृद्धता से पूर्ण (संसारचक्कवालंमि) संसार रूपी चक्र में, वे अन्यतीर्थी (पुणो पुणो ) बार-बार (नाणाविहाई) नाना प्रकार के ( दुक्खाई) दुःखों को (अणुहति) अनुभव करते हैं । भावार्थ - मृत्यु, व्याधि और वृद्धता से परिपूर्ण इस संसाररूपी चक्र में वे अन्यतीर्थी बार-बार नाना प्रकार के ४५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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