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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १५ परसमयवक्तव्यतायामात्मषष्ठवाद्यधिकारः बात असङ्गत है, क्योंकि सामान्य की अपेक्षा से आत्मा क्रियावान् ही है । अतः इस विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है । इसी तरह जो वृक्ष निश्चित रूप से फल नहीं देता है तथा समय पर फल नहीं देता है, वह भी वृक्ष से भिन्न नहीं हो जाता है, किन्तु वह वृक्ष ही है, इत्यादि दृष्टान्त भी यहाँ समझना चाहिए। तथा जो गाय, दूध नहीं देती है अथवा जो थोड़ा दूध देती है वह गाय से भिन्न नहीं हो जाती, इत्यादि दृष्टान्त देकर भी पूर्वोक्त रीति से दार्टान्त की योजना कर लेनी चाहिए। ॥३५॥१४॥ - साम्प्रतमात्मषष्ठवादिमतं पूर्वपक्षयितुमाह - - शास्त्रकार आत्मषष्ठवादी का मत पूर्वपक्ष रूप से बताने के लिए कहते हैं । संति पंच महब्भूया, इहमेगेसि आहिया । आयछट्टो पुणो आहु, आया लोगे य सासए ॥१५॥ छाया - सन्ति पच महाभूतानि, इहेकेषामाख्यातानि । आत्मषष्ठानि पुनराहुरात्मा लोकश्च शाश्वतः ॥ व्याकरण - (संति) क्रिया (पंच) महाभूत का विशेषण । (महब्भूया) संति क्रिया का कर्ता । (इह) अव्यय (एगेसि) कर्ता (आहिया)महाभूत का विशेषण । (आयछट्ठो) महाभूत का विशेषण । (पुणो) अव्यय । (आहु) क्रिया (आया लोगे) कर्ता (य) अव्यय (सासए) आत्मा और लोक का विशेषण। अन्वयार्थ - (महब्भूया) महाभूत (पंच संति) पाँच हैं (आयछट्ठो) और आत्मा छट्ठा है (एगेसि) किन्ही का (आहिया) यह कथन है। (पुणो) फिर (आह) वे कहते हैं कि- (इह) इस जगत् में (आया) आत्मा (लोगे य) और लोक (सासए) नित्य हैं । भावार्थ- कोई कहते हैं कि इस लोक में महाभूत पाँच और छट्ठा आत्मा है । फिर वे कहते हैं कि आत्मा और लोक नित्य हैं। टीका - 'संति' विद्यन्ते 'पञ्च महाभूतानि' पृथिव्यादीनि 'इह' अस्मिन् संसारे 'एकेषां' वेदवादिनां सांख्यानां शैवाधिकारिणां च, एतद् आख्यातम्, आख्यातानि वा भूतानि, ते च वादिन एवमाहुः- एवमाख्यातवन्तः, यथा 'आत्म-षष्ठानि' आत्मा षष्ठो येषां तानि आत्मषष्ठानि भूतानि विद्यन्ते, इति, एतानि चात्मषष्ठानि भूतानि यथाऽन्येषां वादिनामनित्यानि तथा नामीषामिति दर्शयति- आत्मा 'लोकश्च' पृथिव्यादिरूपः 'शाश्वतः', अविनाशी, तत्रात्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्तत्वाच्चाकाशस्येव शाश्वतत्वं' पृथिव्यादीनां च तद्रूपाप्रच्युतेरविनश्वरत्वमिति ॥१५॥ टीकार्थ - वेदवादी, सांख्य और वैशेषिक कहते हैं कि- "इस जगत् में पृथिवी आदि पाँच महाभूत हैं और छट्ठा आत्मा हैं।" दूसरे वादियों के मत में जैसे ये, अनित्य हैं, वैसे इनके मत में अनित्य नहीं है। यह दिखलाते हैं- पृथिवी आदि लोक तथा आत्मा शाश्वत यानी अविनाशी हैं। इनमें आत्मा आकाश की तरह सर्वव्यापक और अमूर्त होने के कारण नित्य है और अपने स्वरूप से नष्ट न होने के कारण पृथिवी आदि अविनाशी हैं ॥१५॥ 1. यहाँ की नियुक्ति गाथा तथा उसकी टीका देखने से यह भ्रम हो सकता है कि यहाँ की नियुक्ति और टीका, प्रस्तुत विषय से अनमेल अर्थ को बता रहे हैं, क्योंकि यहाँ प्रस्तुत विषय यह है- “अल्प क्रियावाला भी क्रियावान् है।" इसके लिए दृष्टान्त यही होना चाहिए कि अल्प फलवाला वृक्ष भी जैसे फलवाला ही कहलाता है, तथा अल्प दूध वाली गाय भी जैसे दूधवाली ही कहलाती है, उसी तरह अल्प क्रियावाला भी आत्मा क्रियावाला ही है । निष्क्रिय नहीं है । परन्तु ऐसा न कहकर इन लोगों ने जो यह कहा है कि- अल्प फलवाला वृक्ष भी वृक्ष ही है, अवृक्ष नहीं है" यह देखकर संशय हो सकता है कि यह दृष्टान्त, दार्टान्त से नहीं मिलता है, क्योंकि दार्टान्त में अल्प क्रियावान् होने से आत्मा का अभाव नहीं बताया है, किन्तु उसका निष्क्रिय होना कहा है, इसलिए दृष्टान्त में भी वृक्ष का अभाव न कहकर उसको अल्प फलवाला होने से फल रहित न होना ही बताना चाहिए । तथापि नियुक्ति और टीकाकार का आशय कथञ्चित् यही समझना चाहिए, इसलिए कोई दोष नहीं है। 2. पुणेगाऽऽहु । 3. वैशेषिकाणां प्र० ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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