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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १४ परसमयवक्तव्यतायामकारकवादिमतखण्डनाद्यधिकारः प्रकार भी नहीं हो सकता है। अतः वे अकारकवादी, जो वस्तु देखी जाती है और जो इष्ट है, उनके बाधक रूप एक अज्ञान से निकलकर उससे भी निकृष्ट यातनास्थान को प्राप्त करते हैं। ऐसा क्य कि वे, मूर्ख सदा प्राणियों के अपकार रूप आरम्भ में लगे रहते हैं । अब नियुक्तिकार, अकारकवादी के मत का खण्डन करने के लिए कहते हैं- "को वेएई" अर्थात् यदि कर्ता नहीं है तो उसका किया हुआ कर्म भी नहीं है और जब आत्मा का किया हुआ कर्म नहीं है तो बिना कर्म किये उसका फल वह कैसे भोग सकता है ? आत्मा को कर्ता न मानने पर उसका सुख-दुःख भोगना नहीं हो सकता है। यदि कर्म किये बिना ही उसका फल सुख-दुःख भोगा जाय तो "अकृतागम, और कृतनाश" दोष आते हैं । (कर्म किये बिना ही उसका फल भोगना अकृतागम दोष है और किये हुए कर्म का फल न भोगना कृतनाश दोष कहलाता है ।) ऐसी दशा में एक प्राणी के द्वारा किये हुए पाप से सब प्राणी को दुःखी और एक के पुण्य से सभी प्राणी को सुखी हो जाना चाहिए । परन्तु यह कहीं नहीं देखा जाता है और ऐसा मानना इष्ट भी नहीं है । तथा आत्मा, यदि व्यापक और नित्य है तो उसकी नरक, तिर्यक्, मनुष्य, अमर और मोक्षरूप पाँच प्रकार की गति भी नहीं हो सकती है, ऐसी दशा में सांख्यवादी जो काषायवस्त्रधारण, शिरोमुण्डन, दण्डधारण, भिक्षान्नभोजन तथा पञ्चरात्र (ग्रन्थ विशेष) के उपदेशानुसार यम-नियम आदि का अनुष्ठान करते हैं, यह सब व्यर्थ ही है । तथा "पच्चीस तत्त्वों को जाननेवाला पुरुष चाहे किसी आश्रम में रहे और वह जटी हो, मुण्डी हो अथवा शिखाधारी हो मुक्ति को प्राप्त करता है।" यह कथन भी निरर्थक ही है । तथा सर्वव्यापी होने के कारण देवता और मनुष्य आदि गतियों में आत्मा का जानाआना भी नहीं हो सकता तथा नित्य होने के कारण विस्मृति न होने से उस आत्मा में जातिस्मरण आदि क्रिया भी नहीं हो सकती । तथा 'आदि' ग्रहण से वे जो "प्रकृति कर्म करती है और पुरुष उसका फल भोगता है", मा में भोगक्रिया मानते हैं, वह भी नहीं हो सकता क्योंकि भोगक्रिया भी क्रिया ही है और सांख्यवादी आत्मा को निष्क्रिय मानते हैं, अतः आत्मा में भोग होना सम्भव नहीं है। यदि कहो कि दर्पण में प्रतिबिम्बित मूर्ति जैसे बाहर रहकर भी दर्पण में दिखाई देती है, उसी तरह आत्मा में न होता हुआ भी भोग आत्मा में प्रतीत होता है, तो यह, तुम्हारे मूर्ख मित्र ही मानेंगे क्योंकि यह कथन युक्तिरहित होने के कारण कथनमात्र है । तथा प्रतिबिम्ब का उदय भी एक प्रकार की क्रिया ही है, वह विकार रहित नित्य आत्मा में कैसे हो सकती है ? इसलिए यह युक्ति भी निर्बल है ॥३४॥ यदि कहो कि आत्मा में भोगक्रिया और प्रतिबिम्ब की उदय क्रिया होती है, इसलिए वह इन क्रियाओं की अपेक्षा से यद्यपि सक्रिय है तथापि इतने मात्र से हम उसे सक्रिय नहीं मान सकते, किन्तु समस्त क्रिया करने पर उसे सक्रिय मान सकते हैं तो ऐसी आशंका पर नियुक्तिकार कहते हैं- "ण हु" अर्थात् फलवान् न होना, वृक्ष के अभाव का साधक नहीं है, क्योंकि जब वृक्ष, फलयुक्त हो तब वृक्ष कहलाये और जब फल युक्त न हो तब वृक्ष न कहलाये, ऐसा नहीं होता, इसी तरह सुप्त आदि अवस्थाओं में यद्यपि आत्मा कथञ्चित् निष्क्रिय होता है तथापि इतने मात्र से वह निष्क्रिय कहलाये, ऐसा नहीं हो सकता । तथा थोड़े फलों से युक्त होना वृक्ष के अभाव का साधक नहीं है, क्योंकि थोड़े फलवाले कटहल आदि भी वृक्ष ही कहलाते हैं। इसी तरह थोड़ी क्रियावाला भी आत्मा क्रियावान् ही है, निष्क्रिय नहीं है, कदाचित् आप यह समझते हैं कि- "थोड़ी क्रिया करनेवाला निष्क्रिय ही है, जैसे एक पैसावाला पुरुष, धनवान् नहीं कहलाता, इसी तरह थोड़ी क्रियावाला होने के कारण आत्मा भी क्रियावान् नहीं कहला सकता, किन्तु वह निष्क्रिय ही है ।" तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि- आपने यह दृष्टान्त किसी खास पुरुष की अपेक्षा से दिया है अथवा समस्त पुरुषों की अपेक्षा से दिया है ? । यदि आपने किसी खास पुरुष की अपेक्षा से अर्थात् जिस के पास हजारों रुपये हैं, उसकी अपेक्षा से यदि एक पैसावाले को निर्धन कहा है तो यह सर्वमान्य अर्थ को ही आपने सिद्ध किया है, क्योंकि हजारों रुपयेवाले पुरुष की अपेक्षा से वह एक पैसावाला निर्धन है। यह सभी मानते हैं, लेकिन यदि आप समस्त पुरुषों की अपेक्षा से एक पैसेवाले को निर्धन कहते हैं तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिसके पास एक पैसा भी नहीं है ऐसे जो लोग फटे-पुराने चीथड़े पहनकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं, उनकी अपेक्षा से वह एक पैसेवाला भी धनवान् ही है। इसी तरह विशिष्ट शक्तिवाले पुरुष की क्रिया के हिसाब से यदि आप आत्मा को क्रिया रहित कहते हैं, तब तो कोई क्षति नहीं है, परन्तु यदि आप सामान्य की अपेक्षा से आत्मा को क्रिया रहित कहते हैं तब तो यह
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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