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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ८ परसमयवक्तव्यतायाञ्चार्वाकाधिकारः उत्पन्न हुआ है । वह रस, रूप और स्पर्श गुणवाला है । रूप तन्मात्रा से तेज की उत्पत्ति हुई है । वह रूप और स्पर्श गुणवाला है । स्पर्श तन्मान्त्रा से वायु उत्पन्न हुआ है, उसका स्पर्श गुण है । शब्द तन्मात्रा से आकाश उत्पन्न हुआ है । वह गंध, रस, रूप और स्पर्श से वर्जित है । इसी तरह वैशेषिकों ने भी भूतों का कथन किया है । जैसे कि पृथिवीत्वरूप धर्म के सम्बन्ध से पृथिवी होती है । परमाणुरूप वह पृथिवी नित्य है और द्वयणुकादि क्रम से उत्पन्न होनेवाली कार्य्यरूपा वह पृथ्वी अनित्य है । वह पृथ्वी 1रूप, रस, गंध, स्पर्श, 'संख्या, 'परिमाण, 7 पृथक्त्व, 'संयोग, 'विभाग, 10 परत्व, 11 अपरत्व, 12 गुरुत्व, द्रवत्व और 14 वेग नामक चौदह गुणों से युक्त है । तथा जलत्व रूप धर्म के सम्बन्ध से जल होता है । वह भी 1 रूप, 2 रस, स्पर्श, संख्या, 'परिमाण, पृथक्त्व, 7संयोग, 'विभाग, 'परत्व, 10 अपरत्व, 11 गुरुत्व, 12 स्वाभाविकद्रवत्व, 13 स्नेह और 14 वेग नामक गुणों से युक्त है। उस जल का रूप शुक्ल ही है, स्पर्श शीत ही है। तेजस्त्वरूप धर्म के सम्बन्ध से तेज होता है । वह रूप, 2 स्पर्श, संख्या, परिमाण, "पृथक्त्व, 'संयोग, 7 विभाग, परत्व, 'अपरत्व, नैमित्तिक द्रवत्व और 11वेग नामक ग्यारह गुणों से युक्त है । उसका रूप शुक्ल और भास्वर (चमकीला) है तथा स्पर्श उष्ण ही है । वायुत्वरूप धर्म के सम्बन्ध से वायु होता है । वह, 1 अनुष्णशीतस्पर्श, (न गरम न ठंडा) 2 संख्या, परिमाण, 4 पृथक्त्व, 'संयोग, 'विभाग, 7 परत्व, अपरत्व और 'वेग नामक नव गुणों से युक्त है। हृदय का कम्पन, शब्द और अनुष्णशीतस्पर्श, उसके लिङ्ग (बोधक) हैं । आकाश, यह पारिभाषिक नाम है क्योंकि आकाश एक है । वह, संख्या, परिमाण, 'पृथक्त्व, संयोग, 'विभाग और 'शब्द नामक छः गुणों से युक्त है और शब्द उसका लिङ्ग ( बोधक) है । इसी तरह दूसरे वादियों ने भी भूतों का अस्तित्व स्वीकार किया है, ऐसी दशा में लोकायतिक मत की अपेक्षा से ही पाँच भूतों का कथन क्यों किया गया ? (समाधान) कहते हैं कि सांख्य आदि दार्शनिक प्रकृति से अहंकार के साथ दूसरे पदार्थों की उत्पत्ति तथा काल, दिशा और आत्मा आदि दूसरे पदार्थ भी मानते हैं परन्तु लोकायतिक लोग पाँच महाभूतों से भिन्न आत्मा आदि पदार्थ नहीं मानते हैं, इसीलिए लोकायतिक मत की अपेक्षा से ही सूत्रार्थ की व्याख्या की जाती है ॥७॥ - यथा चैतत् तथा दर्शयितुमाह-एए पंचमहब्भूया इत्यादि । जिस प्रकार यह लोकायतिक मत है, वैसा दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं- "एए पंच महब्भूया इत्यादि । " एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगो त्ति आहिया । अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥८॥ छाया - एतानि पश महाभूतानि, तेभ्य एक इत्याख्यातवन्तः । अथ तेषां विनाशेन विनाशो भवति देहिनः || व्याकरण - (एए) महाभूत का विशेषण सर्वनाम । (पंच) महाभूत का विशेषण । (महब्मया) कर्ता । (तेब्मो) सर्वनाम अपादानकारक (एगो) सर्वनाम चेतन का बोधक (आहिया) चार्वाक का विशेषण । ( अह) अव्यय ( तेसिं) विनाश का कर्ता (विणासेणं) हेत्वर्थक तृतीयान्त ( विणासो) होइ क्रिया का कर्ता । (होइ) क्रिया (देहिणो) विनाश का कर्ता । अन्वयार्थ - (एए) ये (पंच) पाँच (महब्मया) महाभूत हैं । ( तेब्मो) इनसे ( एगो त्ति ) एक आत्मा उत्पन्न होता है, यह (आहिया) वे, कहते हैं । (अह) इसके पश्चात् (तेसिं) उन भूतों के (विणासेणं) नाश से (देहिणो) आत्मा का (विणासो) नाश ( होइ) होता है । भावार्थ - पूर्व गाथा में कहे हुए पृथिवी आदि पाँच महाभूत हैं। इन पाँच महाभूतों से एक आत्मा उत्पन्न होता है, ऐसा लोकायतिक कहते हैं। इन महाभूतों के नाश होने से उस आत्मा का भी नाश हो जाता है, यह वे मानते हैं । टीका 'एतानि ' अनन्तरोक्तानि पृथिव्यादीनि पञ्च महाभूतानि यानि, तेभ्यः कायाकारपरिणतेभ्य एकः कश्चिच्चिद्रूपो भूताव्यतिरिक्त आत्मा भवति । न भूतेभ्यो व्यतिरिक्तोऽपरः कश्चित् परपरिकल्पितः परलोकानुयायी सुखदुःखभोक्ता जीवाख्यः पदार्थोऽस्तीत्येवमाख्यातवन्तस्ते । तथा (ते) हि एवं प्रमाणयन्ति - न पृथिव्यादिव्यतिरिक्त ९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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