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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ५ स्वसमयवक्तव्यताधिकारः संवसेन्नरः, तेषु मातृपितृभ्रातृभगिनीभा-वयस्यादिषु ममायमिति-ममत्ववान् स्निह्यन् लुप्यते विलुप्यते । ममत्वजनितेन कर्मणा नारकतिर्य्यङ्मनुष्यामरलक्षणे संसारे भ्रम्यमाणो बाध्यते-पीडयते, कोऽसौ ? 'बाल:-अज्ञः-सदसद्विवेकरहितत्वात्, अन्येष्वन्येषु च मूर्च्छितो गृद्धोऽध्युपपन्नो ममत्वबहुल इत्यर्थः । पूर्वं तावन्मातापित्रोस्तदनु भार्यायां पुनः पुत्रादौ स्नेहवानिति ॥४॥ ____टीकार्थ - मनुष्य, जिस राठौर आदि कुल में उत्पन्न हुआ है और साथ में धूलि क्रीड़ा किये हुए जिन मित्रों और भाऱ्या आदि के साथ वह निवास करता है, उन माता-पिता-भाई-भगिनी-भार्या और मित्र आदि में "ये मेरे हैं" ऐसी ममता रखकर उनमें स्नेह करता हुआ, वह दुःखित होता है । वह पुरुष, ममता से उत्पन्न कर्म के द्वारा नरक, तिर्यञ्च मनुष्य और अमर (देव) रूप संसार में भ्रमण करता हुआ पीड़ित होता है । वह कौन है? वह बाल अर्थात् अज्ञानी है क्योंकि उसको सत् और असत् का विवेक नहीं है । वह अन्य-अन्य वस्तुओं में आसक्त रहता हुआ, उनमें बहुत ममता रखता है । वह पहले माता-पिता में स्नेह करता है, इसके पश्चात् भार्या में स्नेह करता है फिर वह पुत्र आदि में स्नेह करता है ॥४|| - साम्प्रतं यदुक्तं प्राक् 'किंवा जानन् बन्धनं त्रोटयतीति' अस्य निर्वचनमाह - ___- पहले कहा है कि "क्या जानकर जीव बंधन को तोड़ता है ।" इसका समाधान देने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - वित्तं सोयरिया चेव सव्वमेयं न ताणइ । संखाए जीवियं चेवं, कम्मुणा उ तिउट्टई ॥५॥ छाया - वित्तं सोदश्चैिव सर्वमेत त्राणाय । संख्याय जीवितं चैव कर्मणस्तु त्रुटयति ॥ व्याकरण - (वित्तं सोयरिया) कर्ता (चेव) अव्यय (सव्वमेयं) सर्वनाम, कर्ता का विशेषण (न) अव्यय (ताणइ) चतुर्थ्यन्त । (संखाए) पूर्वकालिक क्रिया (जीवियं) कर्म (चेव) अव्यय (कम्मुणा) करण अथवा अपादान । (उ) अव्यय (तिउट्टई) क्रिया । अन्वयार्थ - (वित्त) धन दौलत (चेव) और (सोयरिया) सहोदर भाई-भगिनी आदि (एयं सव्वं) ये सब (ण ताणइ) रक्षा के लिए नहीं हैं । (संखाए) यह जानकर (जीवियं चेवं) तथा जीवन को भी स्वल्प जानकर जीव, (कम्मुणा उ) कर्म से (तिउट्टई) पृथक् हो जाता है । भावार्थ - धन, दौलत और भाई, भगिनी आदि ये सब रक्षा के लिए समर्थ नहीं होते हैं, तथा जीवन भी अल्प है, यह जानकर जीव, कर्म से पृथक् हो जाता है। टीका - वित्तं द्रव्यं तच्च सचित्तमचित्तं वा, तथा सोदा भ्रातृ-भगिन्यादयः, सर्वमपि च 'एतद्' वित्तादिकं संसारान्तर्गतस्यासुमतोऽतिकटुकाः शारीरमानसीर्वेदनाः समनुभवतो न त्राणाय रक्षणाय भवतीत्येतत्संख्याय ज्ञात्वा तथा जीवितं च प्राणिनां स्वल्पमिति संख्याय ज्ञ परिज्ञया, प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु सचित्ताचित्तपरिग्रहप्राण्युपघात-स्वजनस्नेहादीनि बन्धनस्थानानि प्रत्याख्याय कर्मणः सकाशात् 'त्रुटयति' अपगच्छत्यसौ, तु अवधारणे त्रुटयेदेवेति। यदि वा कर्मणा क्रियया संयमानुष्ठानरूपया बन्धनात् त्रुटयति कर्मणः पृथग्भवतीत्यर्थः ।।५।। टीकार्थ - द्रव्य को 'वित्त' कहते है । वह सचित्त हो अथवा अचित्त हो, तथा भाई-बहिन आदि सहोदर गण, ये सब, अतिकष्टदायी शारीरिक और मानसिक पीड़ा भोगते हुए संसारी प्राणी की रक्षा के लिए समर्थ नहीं होते हैं, यह जानकर, तथा प्राणियों का जीवन भी स्वल्प है, यह ज्ञपरिज्ञा से जानकर पश्चात् प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा सचित्त, अचित्त परिग्रह, जीवघात और स्वजनवर्ग के स्नेह आदि बन्धनस्थानों को छोड़कर जीव कर्म से पृथक् हो जाता है । "तु' शब्द अवधारणार्थक है । इसलिए वह जीव अवश्य कर्म से पृथक् हो जाता है । यह अर्थ अथवा उक्त बात को जानकर, जीव संयम के अनुष्ठानरूप क्रिया द्वारा बन्धन से छूट जाता है अर्थात् कर्म से 1. द्वाभ्यामाकलितः चू. 1 2. संधाति चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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