SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना तच्चेदम्- "उद्देसे निद्देसे य" इत्यादि । सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु सूत्रे सति संभवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव, तत्राखलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम् । अब पहले कहे हुए उद्देशकों का अधिकार बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। उनमें प्रथम उद्देशक के छः अर्थाधिकार पहेली गाथा के द्वारा कहे गये हैं। जैसे कि पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँच महाभूत हैं । ये सर्वलोक व्यापी होने के कारण महान् अर्थाधिकार है। दूसरे उद्देशक में चार अर्थाधिकार हैं- जैसे कि नियतिवाद, अज्ञानिकमत और ज्ञानवादी का कथन और भूत है । इसलिए ये महाभूत कहे जाते हैं । यह पहला अर्थाधिकार है । चेतन और अचेतन जगत् के सभी पदार्थ आत्मा के परिणाम हैं । इस प्रकार आत्माद्वैतवाद प्रतिपादन किया गया है, अतः यह दूसरा अर्थाधिकार है। वही जीव है और वही शरीर है अर्थात् शरीर के आकार में भूतों का परिणाम ही जीव है और वही शरीर है, तात्पर्य यह है कि जीव और शरीर एक हैं, यह तीसरा अर्थाधिकार है । तथा पाप और पुण्य सभी क्रियाओं को जीव नहीं करता है ऐसा कहनेवाला पुरुष, चौथा अर्थाधिकार है । पाँच महाभूत हैं और उनमें छट्ठा आत्मा है, यह पाँचवाँ अर्थाधिकार है । किसी भी क्रिया का फल नहीं होता है, ऐसा कहने वाले का मत भी यहाँ कहा गया है, वह छट्ठा है । दूसरे उद्देशक में चार अर्थाधिकार है, वह इस प्रकार- नियतिवाद, अज्ञानवादी और ज्ञानवादी प्रतिपादित किये जाते है । तथा शाक्यों के आगम में चार प्रकार का कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता है, यह चौथा अर्थाधिकार है । वे चार प्रकार के कर्म ये हैं (१) अविज्ञोपचित । अज्ञान को अविज्ञा कहते हैं । उससे किया हुआ कर्म अविज्ञोपचित कहलाता है । जो कर्म भूल से हो गया है, उसे 'अविज्ञोपचित' कहते हैं । जैसे माता के स्तन आदि से दबकर पुत्र की मृत्यु होने पर भी अज्ञान के कारण माता को कर्म का उपचय नहीं होता है। इसी तरह भूल से जीव हिंसा आदि होने पर भी कर्म का उपचय नहीं होता है । (२) दूसरा परिज्ञोपचित । केवल मन के द्वारा चिन्तन करना परिज्ञा कहलाता है, उससे भी किसी प्राणी का घात न होने के कारण कर्म का उपचय नहीं होता है । (३) तीसरा ई-प्रत्यय अर्थात् मार्ग में आने-जाने से जो जीव हिंसा होती है, उससे भी कर्म का उपचय नहीं होता है क्योंकि वहाँ मार्ग में जानेवाले का अभिप्राय जीवघात का नहीं होता । (४) चौथा स्वप्नान्तिक जैसे स्वप्न में भोजन करने से तृप्ति नहीं होती है, उसी तरह स्वप्न में किये हुए जीव हिंसा आदि से कर्म का उपचय नहीं होता है । तृतीय उद्देशक में आधाकर्म आहार का विचार किया गया है और वह आहार खानेवालों का दोष दिखाया गया है तथा कृतवादी का मत भी कहा गया है। कोई इस लोक को ईश्वरकत और कोई प्रधानादिकृत कहते हैं। ये प्रावादक अपनेअपने पक्ष का समर्थन करने के लिए जिस प्रकार खड़े होते हैं, वह भी इस उद्देशक में कहा है, यह दूसरा है। चतुर्थ उद्देशक का अर्थाधिकार यह है- अविरत यानी गृहस्थों में जो असंयमप्रधान अनुष्ठान हैं, वे ही परतीर्थिकों में भी विद्यमान हैं इसलिए परतीर्थी, गृहस्थ के तुल्य हैं ॥३०-३२॥ ___ अब अनुगम बताया जाता है । अनुगम दो प्रकार का होता है । एक सूत्रानुगम और दूसरा नियुक्त्यनुगम । इनमें नियुक्त्यनुगम तीन प्रकार का होता है जैसे कि- निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम । इनमें निक्षेपनियुक्त्यनुगम कथित प्रायः है, क्योंकि वह ओघनिष्पन्न और नामनिष्पन्न निक्षेप में ही भूत है तथा आगे कहा जानेवाला सूत्र का निक्षेप भी आगे किया जायगा । उपोद्घात निर्युक्त्यनुगम को छब्बीस द्वार बतानेवाली दो गाथाओं से जान लेना चाहिए । “उद्देसे निद्देसे" इत्यादि दो गाथाये हैं। सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति का अनुगम तो सूत्र होने पर होता है और सूत्र, सूत्रानुगम होने पर होता है । उस सूत्रानुगम का अवसर आ ही गया है । अतः अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए । वह सूत्र यह है । 1. उद्देसे निद्देसे य निग्गमे खित्तकालपुरिसे य । कारणपच्चयलक्खणनएसमोयारणाणुमए ।।१।। किं कइविहं कस्स कहिं केसु कहं किच्चिरं हवइ कालं । कइसंतरमविरहिअं भवागरिस फासण निरुत्ती ।।२।। उद्देशो निर्देशश्च निर्गमः क्षेत्रं कालं पुरुषश्च । कारणं प्रत्ययो लक्षणं नयः समवतारोऽनुमतम् ॥१॥ किं कतिविधं कस्य क्व केषु कथं कियच्चिरं भवति कालम् । कति सान्तरमविरहितं भवा आकर्षाः स्पर्शना निरुक्तिः ॥ 2. प्रसृतिर्निर्गममित्यर्थः - मेघच्छन्ने यथा चन्द्रो न राजति नभस्तले । उपोद्घातं विना शास्त्र तथा न भ्राजते विधौ ।। 3. संहिता लक्षिता “संहिया य पयं चेव पयत्यो पयविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य छव्विहं विद्धि लक्षणं ।।१।। इति व्याख्यालक्षणे तस्या एवादौ प्रतिपादनात्।।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy