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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोदेशके: गाथा २२
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् एवं तस्मात् स भिक्षुः, अध्यात्मविशुद्धः - सुविशुद्धान्तःकरणः सुष्ठु रागद्वेषात्मकेन स्त्रीसम्पर्केण मुक्तः सन् 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयं यावत्परि-समन्तात्संयमानुष्ठानेन 'व्रजेत्' गच्छेत्संयमोद्योगवान् भवेदिति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२॥ इति चतुर्थं स्त्रीपरिज्ञाध्ययनं परिसमाप्तम् ॥
टीकार्थ पहले जो कहा गया है सो सब दिव्यज्ञानी परहित में तत्पर भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है। भगवान महावीर स्वामी ने स्त्री संपर्क जनित कर्मों को दूर कर दिया था तथा राग-द्वेष रूप मोह को भी जीत लिया था, यहाँ दूसरा पाठ भी पाया जाता है, उसका अर्थ यह है- स्त्री के साथ परिचय आदि के त्याग करने में जरा भी ढीलाई नहीं करनी चाहिए, किन्तु स्त्री में राग छोड़ देना चाहिए, यह भगवान वीर ने ही कहा है, इसलिए विशुद्ध अन्तःकरणवाला तथा रागद्वेष स्वरूप स्त्री सम्पर्क से मुक्त होकर साधु समस्त कर्मों के क्षयपर्य्यन्त संयम में उद्योग करे । इति शब्द समाप्त्यर्थक है, ब्रवीमि पूर्ववत् है, यह चौथा स्त्रीपरिज्ञाध्ययन समाप्त हुआ ।
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