SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोदेशके: गाथा २२ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् टीका - सुष्ठु - विशेषण शुद्धा स्त्रीसम्पर्कपरिहाररूपतया निष्कलङ्का लेश्या - अन्तःकरणवृत्तिर्यस्य स तथा स एवम्भूतो 'मेधावी' मर्यादावर्ती परस्मै स्त्र्यादिपदार्थाय क्रिया परक्रिया-विषयोपभोगद्वारेण परोपकारकरणं परेण वाऽऽत्मनः संबाधनादिका क्रिया परक्रिया तां च 'ज्ञानी' विदितवेद्यो 'वर्जयेत्' परिहरेत्, एतदुक्तं भवतिविषयोपभोगोपाधिना नान्यस्य किमपि कुर्यान्नाप्यात्मनः स्त्रिया पादधावनादिकमपि कारयेत्, एतच्च परक्रियावर्जनं मनसा वचसा कायेन वर्जयेत्, तथाहि - औदारिककामभोगार्थं मनसा न गच्छति नान्यं गमयति गच्छन्तमपरं नानुजानीते एवं वाचा कायेन च, सर्वेऽप्यौदारिके नव भेदाः, एवं दिव्येऽपि नव भेदाः, ततश्चाष्टादशभेदभिन्नमपि ब्रह्म बिभृयात्, यथा च स्त्रीस्पर्शपरीषहः सोढव्य एवं सर्वानपि शीतोष्णदंशमशकतृणादिस्पर्शानधिसहेत, एवं च सर्वस्पर्शसहोऽनगारः साधुर्भवतीति ॥२१॥ टीकार्थ जिसकी चित्तवृत्ति विशेषरूप से स्त्री संसर्ग के त्यागरूप होने के कारण निष्कलङ्क है तथा जो मर्य्यादा में स्थित और जानने योग्य पदार्थों को जाननेवाले ज्ञानवान् है, वह पुरुष परक्रिया न करे । स्त्री आदि पदार्थ के लिए जो क्रिया की जाती है, उसे परक्रिया कहते हैं अर्थात् विषय का उपभोग देकर जो दूसरे का उपकार किया जाता है, वह परक्रिया है । तथा दूसरे के द्वारा अपना पैर आदि दबवाना भी परक्रिया है, उसे भी ज्ञानी पुरुष वर्जित करे । आशय यह है कि- विषयभोग की सामग्री देकर ज्ञानी पुरुष दूसरे की कुछ सहायता न करे तथा स्त्री आदि के द्वारा अपना पैर धोलाना आदि सेवा न करावे । साधु मन, वचन और शरीर तीनों से परक्रियाओं को वर्जित करे । साधु औदारिक कामभोग के लिए मन से न जाय तथा दूसरे को भी मन से न भेजे और जाते हुए को अच्छा नहीं जाने एवं इसी प्रकार वचन से और शरीर से भी समझना चाहिए । इस प्रकार औदारिक कामभोग के नौ भेद होते हैं, इसी तरह दिव्य कामभोग के भी नौ भेद हैं । अतः साधु अठारह प्रकार से ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करे । जिस प्रकार साधु स्त्री परीषह को सहन करे, इसी प्रकार शीत, उष्ण, दंश, मशक और तृण आदि सभी स्पर्शो को सहन करे । इस प्रकार सम्पूर्ण स्पर्शो को सहन करनेवाला अनगार साधु होता है ॥२१॥ - - क एवमाहेति दर्शयति - किसने यह कहा था ? सो शास्त्रकार दिखलाते हैं इच्चेवमाहु से वीरे, धुअरए धुअमोहे से भिक्खू । तम्हा अज्झत्थविसुद्धे, सुविमुक्के आमोक्खाए परिव्वज्जासि त्ति बेमि इति श्रीइत्थीपरिन्ना चतुर्थाध्ययनं समत्तं ।। (गाथाग्रम्०३०९) छाया - इत्येवमाहुः स वीरः धुतरजाः थुतमोहः स भिक्षुः । तस्मादात्मविशुद्धः सुविप्रमुक्तः आमोक्षाय परिव्रजेदिति । ब्रवीमि (विहरेदामोक्षाय ) ॥२२॥ अन्वयार्थ - ( धुअरए धुअमोहे) जिसने स्त्रीसम्पर्कजनित रज यानी कर्मों को दूर कर दिया था तथा जो रागद्वेष से रहित थे ( से वीरे इच्चेवमाहु) उस वीर प्रभु ने यह कहा है (तम्हा अज्झत्थविशुद्धे) इसलिए निर्मलचित्त (सुविमुक्के से भिक्खू) और स्त्री सम्पर्क वर्जित वह साधु ( आमोक्खाय) मोक्ष पर्य्यन्त (परिव्वज्जासि) संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त रहे (त्तिबेमि) यह मैं कहता हूँ । भावार्थ - जिसने स्त्री सम्पर्कजनित रज यानी कर्मों को दूर कर दिया था तथा जो राग-द्वेष से रहित थे, उन वीर प्रभु ने ये पूर्वोक्त बाते कहीं हैं, इसलिए निर्मलचित्त और स्त्री सम्पर्क वर्जित, वह साधु मोक्षपर्य्यन्त संयम के अनुष्ठान में प्रवृत रहे । टीका - 'इति' एवं यत्पूर्वमुक्तं तत्सर्वं स वीरो भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः परहितैकरतः 'आह' उक्तवान्, यत एवमतो धूतम्-अपनीतं रजः - स्त्रीसम्पर्कादिकृतं कर्म येन स धूतरजाः तथा धूतो मोहो राग-द्वेषरूपो येन स तथा । पाठान्तरं वा धूतः - अपनीतो रागमार्गो-रागपन्था यस्मिन् स्त्रीसंस्तवादिपरिहारे तत्तथा तत्सर्वं भगवान् वीर एवाह, यत 1. पाठा० विहरे आमुक्खाए । २९१
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy