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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना तेषां च ग्रन्थरचनां प्रति शुभध्यायिनां कर्मद्वारेण योऽवस्थाविशेषस्तं दर्शयितुकामो निर्युक्तिकृदाहठिइअणुभावे बंधणनिकायणनिहत्तदीहहस्सेसु । संकमउदीरणाए उदए वेदे उवसमे य ॥१७॥ नि० तत्र कर्मस्थितिं प्रति अजघन्योत्कृष्टकर्मस्थितिभिर्गणधरैः सूत्रमिदं कृतमिति, तथाऽनुभावो - विपाकस्तदपेक्षया मन्दानुभावैः, तथा बन्धमङ्गीकृत्य ज्ञानावरणीयादिप्रकृतीर्मन्दानुभावा बध्नद्भिः तथाऽनिकाचयद्भिरेवं निधत्तावस्थामकुर्वद्भिस्तथा दीर्घस्थितिकाः कर्मप्रकृतीर्हसीयसीर्जनयद्भिः, तथोत्तरप्रकृतीर्बध्यमानासु संक्रामयद्भिः, तथोदयवतां कर्मणामुदीरणां विदधानैरप्रमत्तगुणस्थैस्तु सातासाताऽऽयूंष्यनुदीरयद्भिः, तथा मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकशरीरतदङ्गोपाङ्गादिकर्मणामुदये वर्तमानैः, तथावेदमङ्गीकृत्य पुंवेदे सति, तथा 'उवसमे 'त्ति सूचनात्सूत्रमिति क्षायोपशमिके भावे वर्तमानैर्गणधारिभिरिदं सूत्रकृताङ्गं दृब्धमिति ॥१७॥नि०|| - ग्रन्थरचना के विषय में शुभ-ध्यानवाले उन गणधरों का कर्म द्वारा जो अवस्था विशेष थी, उसे दर्शाने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं जिनकी कर्मस्थिति, न तो जघन्य थी और न उत्कृष्ट थी, ऐसे गणधरों ने इस सूत्र की रचना की थी । अनुभाव, विपाक का नाम है । वह भी उन गणधरों का मन्द था । वे, मन्दविपाकवाली ज्ञानावरणीय आदि प्रकृति को बाँधते थे, तथा उस कर्मप्रकृति को वे, निकाचित1 और निधत्त' अवस्था में पहुँचने नहीं देते थे । एवं दीर्घस्थितिवाली कर्म प्रकृति को वे ह्रस्व स्थितिवाली करते थे । तथा उत्तर प्रकृतियों को वे बाँधी जाती हुई कर्मस्थिति में मिलाते थे । उदय को प्राप्त कर्मों की वे उदीरणा करते थे । जो अप्रमत्तगुणस्थानवाले थे वे, साता और असाता आयु की उदीरणा नहीं करते थे । मनुष्य गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तथा उसके अंगोपांग आदि कर्मों के उदय में वे वर्तमान थे । पुंवेद और क्षायोपशमिक भाव में वे वर्तमान थे । ऐसे गणधरों ने इस सूत्रकृताङ्गसूत्र की रचना की थी । यह अर्थों की सूचना करने के कारण 'सूत्र' कहलाता है || १७||नि० ॥ I सूत्तमिणं तेण सूयगडं साम्प्रतं स्वमनीषिकापरिहारद्वारेण करणप्रकारमभिधातुकाम आहसोऊण जिणवरमतं गणहारी काउ तक्खओवसमं । अज्झवसाणेण कथं ॥१८॥ नि० श्रुत्वा निशम्य जिनवराणां तीर्थकराणां मतमभिप्रायं मातृकादिपदं 'गणधरैः' गौतमादिभिः कृत्वा 'तत्र' ग्रन्थरचने क्षयोपशमं तत्प्रतिबन्धककर्मक्षयोपशमाद्दत्तावधानैरिति भावः, शुभाध्यवसायेन च सता कृतमिदं सूत्रं तेन सूत्रकृतमिति ॥ १८ ॥ नि० ॥ यह सूत्र अपनी इच्छा से नहीं किन्तु जिस प्रकार रचा गया है, वह बताने के लिए निर्युक्तिकार कहते हैंग्रन्थ की रचना करने में विघ्न उत्पन्न करनेवाले कर्मों के क्षयोपशम हो जाने से, एकाग्रचित्त से गौतमादि गणधरों ने तीर्थंकरों के मत यानी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त मातृकादि पदों को सुनकर शुभ अध्यवसाय के साथ इस सूत्र की रचना की थी, इसलिए इसका नाम 'सूत्रकृत' है ॥१८॥नि० ॥ इदानीं कस्मिन् योगे वर्तमानैस्तीर्थकृद्भिर्भाषितं ? । कुत्र वा गणधरैर्दृब्धमित्येतदाह 1. (निकाचित) जैसे लोह की शलाकाओं को आग में तपाकर घन से पीटने पर वे एक हो जाती हैं । उस समय वे अलग-अलग नहीं की जा सकती हैं, इसी तरह जो कर्म, आत्मा के साथ अत्यंत बँध गया है और बिना भोगे अलग नहीं किया जा सकता है, उसे 'निकाचित' कहते हैं । 2. किसी वस्तु को स्थापित करना, अथवा स्थापित वस्तु को 'निधत्त' कहते हैं । तार में बाँधी हुई लोह की शलाकाएँ तार खोलकर जैसे अलग अलग की जा सकती हैं, इसी तरह जो कर्म, उद्वर्तना और अपवर्तना को छोड़कर शेष करणों से अलग नहीं किये जा सकते हैं, उन्हें 'निधत्त' कहते हैं। अनुकूल पुद्गलों के संयोग से बंध की वृद्धि होना उद्वर्तना है और प्रतिकूल पुद्गलों के संयोग से बंध का घटना 'अपवर्तना' है । 3. मातृकापदादिकं प्र. 22
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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