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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना चतुर्विध होता है । शरीर की निष्पत्ति के पश्चात् बाल, युवा और स्थविर आदि क्रम से जो उत्तरोत्तर अवस्थाविशेष है, वह क्रमकरण है। व्याकरण आदि का ज्ञानरूप अवस्थाविशेष और दूसरी कलाओं का ज्ञानरूप अवस्थाविशेष 'श्रुतकरण' है। कालकृत वय का अवस्था विशेष अथवा रसायन आदि के प्रयोग से संपादित अवस्था विशेष यौवनकरण है । विशिष्ट भोजन आदि होने पर जो विशिष्ट वर्ण आदि उत्पन्न किया जाता है, उसे 'वर्णगन्धरसस्पर्शकरण' कहते हैं । ये वर्ण आदि पुद्गलों के विपाक हैं, इसलिए इन्हें अजीवाश्रित भी समझना चाहिए।॥१४॥नि०।। इदानीं विस्रसाकरणाभिधित्सयाऽऽहवण्णादिया य वण्णादिएसु, जे केइ वीससामेला । ते हंति थिरा अथिरा, छायातवदुद्धमादीसु ॥१५॥ नि० 'वर्णादिका' इति रूपरसगन्धस्पर्शाः ते यदाऽपरेष्वपरेषां वा स्वरूपादीनां मिलन्ति ते वर्णादिमेलकाः विस्त्रसाकरणं, ते च मेलकाः स्थिरा-असंख्येयकालावस्थायिनः, अस्थिराश्च-क्षणावस्थायिनः, संध्यारागाभ्रेन्द्रधनुरादयो भवन्ति । तथा छायात्वेनातपत्वेन च पुद्गलानां विस्रसापरिणामत एव परिणामो भावकरणं दुग्धादेश्च स्तनप्रच्यवनानन्तरं प्रतिक्षणं कठिनाम्लादिभावेन गमनमिति।।१५।।नि०।। अब नियुक्तिकार विस्रसाकरण बताने के लिए कहते हैं रूप-रस-गंध और स्पर्श जब अपने से भिन्न रूप-रस-गंध और स्पर्श में मिलते हैं, तो उस वर्ण आदि के मेल को 'विस्रसाकरण' कहते हैं। वे मेल कोई तो असंख्येय काल तक रहनेवाले स्थिर होते हैं और कोई क्षण भर रहनेवाले अस्थिर होते हैं। जैसे संध्याकाल की लालिमा मेघ और इन्द्रधनुष आदि थोड़ी देर तक ही रहते हैं। इसी तरह पुद्गलों के विस्रसारूप परिणाम से ही छाया और आतपरूप परिणाम होते हैं। इसी तरह दूध आदि पदार्थ स्तन से निकलकर प्रतिक्षण जो काठिन्य और खट्टेपन को प्राप्त होते हैं, वह भावकरण परिणाम समझना चाहिए ॥१५||नि०॥ साम्प्रतं श्रुतज्ञानमधिकृत्य मूलकरणाभिधित्सयाऽऽहमूलकरणं पुण सुते तिविहे जोगे सुभासुभे झाणे । ससमयसुएण पगयं अज्झवसाणेण य सुहेणं ॥१६॥ नि० 'श्रुते' पुनः श्रुतग्रन्थे मूलकरणमिदं 'त्रिविधे योगे' मनोवाक्कायलक्षणे व्यापारे शुभाशुभे च ध्याने वर्तमानैर्ग्रन्थरचना क्रियते, तत्र लोकोत्तरे शुभध्यानावस्थितैर्ग्रन्थरचना विधीयते, लोके त्वशुभध्यानाश्रितैर्ग्रन्थग्रथनं क्रियत इति, लौकिकग्रन्थस्य कर्मबन्धहेतुत्वात्तत्कर्तुरशुभध्यायित्वमवसेयम्, इह तु सूत्रकृतस्य तावत्स्वसमयत्वेन शुभाध्यवसायेन च प्रकृतं, यस्माद्गणधरैः शुभध्यानावस्थितैरिदमङ्गीकृतमिति ॥१६||नि०।। अब नियुक्तिकार श्रुतज्ञान के विषय में मूलकरण बताने के लिए कहते हैं श्रुत यानी श्रुतग्रन्थ के विषय में 'मूलकरण' यह है- तीन प्रकार के योग अर्थात् मन, वचन और काय के व्यापार में तथा शुभ और अशुभ ध्यान में वर्तमान पुरुषों के द्वारा ग्रंथ की रचना की जाती है । उसमें शुभ ध्यान में स्थित पुरुषों के द्वारा लोकोत्तर ग्रंथ की रचना की जाती है और अशुभ ध्यान में स्थित पुरुषों के द्वारा लौकिक ग्रंथ की रचना की जाती है । लौकिक ग्रन्थ कर्मबन्ध के कारण हैं, इसलिए लौकिक ग्रन्थ रचने वाले पुरुषों को अशुभ ध्यानवाला समझना चाहिए । यह सूत्रकृताङ्गसूत्र स्वसिद्धान्त का बोधक है तथा शुभ अध्यवसाय से किया गया है, क्योंकि शुभ ध्यान में स्थित गणधरों ने इसकी रचना की है ॥१६॥नि०॥ 1. समयेन प्र. । 2. स्वसमयत्वेनेति पाठे योगसमुच्चयाय अन्यथा स्वसमयसमुच्चयः, शुभध्यानसमुच्चयोऽप्युभयत्र । 3. रिदमङ्गीकृत इति प्र. । 21
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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