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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकेः प्रस्तावना
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम्
|| अथ चतुर्थं खीपरिज्ञाध्ययनं प्रारभ्यते ।।
उक्तं तृतीयमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने उपसर्गाः प्रतिपादिताः, तेषां च प्रायोऽनुकूला दुःसहाः, ततोऽपि स्त्रीकृताः, अतस्तज्जयार्थमिदमध्ययनमुपदिश्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो द्वेधा - अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारः प्राग्वत् नियुक्तिकृता 'थीदोषविवज्जणा चेवे'त्यनेन स्वयमेव प्रतिपादितः, उद्देशार्थाधिकारं तूत्तरत्र नियुक्तिकृदेव भणिष्यति, साम्प्रतं निक्षेपः, स चौघनामसूत्रालापकभेदात् विधा, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने 'स्त्रीपरिज्ञेति नाम, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य स्त्रीशब्दस्य द्रव्यादिनिक्षेपार्थमाह -
तीसरा अध्ययन कहा जा चुका, अब चौथा आरम्भ किया जाता है । इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ सम्बन्ध यह है - पूर्व अध्ययन में उपसर्ग कहे गये हैं, उनमें प्रायः अनुकूल उपसर्ग दुःसह होते हैं, उन अनुकूल उपसर्गों में भी स्त्री से किया हुआ उपसर्ग अति दुःसह होता है, अतः स्त्रीकृत उपसर्गों के विजय के लिए इस चतुर्थ अध्ययन का उपदेश किया जाता है । इस सम्बन्ध से आये हुए इस अध्ययन के उपक्रम आदि चार अनुयोग द्वार होते हैं। उनमें उपक्रम में अधिकार दो प्रकार का है। अध्ययनार्थाधिकार और उद्देशार्थाधिकार, उनमें अध्ययनार्थधिकार को नियुक्तिकार ने प्रथम अध्ययन की प्रस्तावना में 'थीदोसविवज्जणा चेव' इस गाथा के द्वारा स्वयमेव बता दिया है । तथा उद्देशार्थाधिकार को आगे चलकर नियुक्तिकार स्वयमेव कहेंगे ।
अब निक्षेप कहा जाता है - वह निक्षेप. ओघ नाम और सत्रालापक भेद से तीन प्रकार का है। उनमें ओघ निक्षेप में यह समस्त अध्ययन है और नामनिक्षेप में इस अध्ययन का नाम स्त्री परिज्ञाध्ययन है। इनमें नाम और स्थापना को अभ्यास में आने के कारण छोड़कर स्त्री शब्द का द्रव्यादि निक्षेप बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं - दव्याभिलायचिंधे वेदे भावे य इत्थिणिक्नेयो । अहिलाये जह सिद्धी भावे वेयंमि उपउत्तो ॥५४॥ नि।
टीका - तत्र द्रव्यस्त्री - आगमतो नोआगमतश्च, आगमतः स्त्री पदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तः, अनुपयोगो द्रव्यमितिकृत्वा, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता त्रिधा, 'एकभविका बद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रा चेति, चिह्नयतेज्ञायतेऽनेनेति चिह्न स्तननेपथ्यादिकं, चिह्नमात्रेण स्त्री चिह्नस्त्री, अपगतस्त्रीवेदश्छद्मस्थः केवली वा अन्यो वा स्त्रीवेषधारी यः कश्चिदिति, वेदस्त्री तु पुरुषाभिलाषरूपः स्त्रीवेदोदयः, अभिलापभावौ तु नियुक्तिकृदेव गाथापश्चा?नाहअभिलप्यते इत्यभिलापः स्त्रीलिङ्गाभिधानः शब्दः, तद्यथा - शाला माला सिद्धिरिति, भावस्त्री तु द्वेधा - आगमतो नोआगमतश्च, आगमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, 'उपयोगो भाव' इतिकृत्वा, नोआगमतस्तु भावविषये निक्षेपे 'वेदे' स्त्रीवेदरूपे वस्तुन्युपयुक्ता तदुपयोगानन्यत्वाद्भावस्त्री भवति, यथाऽग्नावुपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव भवति, एवमत्रापि, यदिवा - स्त्रीवेदनिर्वर्तकान्युदयप्राप्तानि यानि कर्माणि तेषु 'उपयक्ते'ति तान्यनुभवन्ती भावस्त्रीति, एतावानेव स्त्रियो निक्षेप इति परिज्ञानिक्षेपस्तु शस्त्रपरिज्ञावद् द्रष्टव्यः ॥
___टीकार्थ - द्रव्य स्त्री दो प्रकार की है - आगम से (ज्ञान से) और नोआगम से । जो पुरुष स्त्री पदार्थ को जानता है, परन्तु उसमें उपयोग नहीं रखता है, वह आगम से द्रव्य स्त्री है, क्योंकि उपयोग न रखना ही द्रव्य है। ज्ञ शरीर और भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्य स्त्री के नोआगम से तीन भेद हैं । एक भविका, (जो एक
1. व्यतिरिक्तभेदाः ।
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