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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकेः गाथा २२ उपसर्गाधिकारः भावार्थ - सम्यग्दृष्टि शांत पुरुष मोक्ष देने में कुशल इस धर्म को अच्छी तरह जानकर उपसों को सहन करता हुआ मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । टीका - 'संख्यायेति सम्यग् ज्ञात्वा 'स्वसम्मत्या अन्यतो वा - श्रुत्वा 'पेशलं'ति मोक्षगमनं प्रत्यनुकूलं, किं तद् ? – 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'दृष्टिमान्' सम्यग्दर्शनी 'परिनिर्वृत' इति कषायोपशमाच्छीतीभूतः परिनिर्वृतकल्पो वा 'उपसर्गान्' अनुकूलप्रतिकूलान् सम्यग् 'नियम्य' अतिसह्य 'आमोक्षाय' मोक्षं यावत् परि - समन्तात् 'व्रजेत्' संयमानुष्ठानेन गच्छेदिति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत्, नयचर्चाऽपि तथैवेति ॥२२॥ ॥ उपसर्गपरिज्ञायाः समाप्तचतुर्थोद्देशकः, तत्परिसमाप्तौ च समाप्तं तृतीयमध्ययनमिति ॥ टीकार्थ - अपनी बद्धि से अथवा दसरे से सनकर मोक्ष देने में अनकल श्रुत, चारित्ररूप धर्म को सुनकर सम्यग्दर्शनयुक्त तथा कषायों के नष्ट हो जाने से शांतभूत, अथवा मुक्त के तुल्य पुरुष अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्ष प्राप्तिपर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । इति शब्द समाप्ति अर्थ में है। ब्रवीमि यह पूर्ववत् है । नयों की चर्चा भी पूर्ववत् ही है ॥२२॥ उपसर्गपरिज्ञाध्ययन का चतुर्थ उद्देशक समाप्त हुआ और उसके समाप्त होने से यह तीसरा अध्ययन समाप्त हुआ। 1. सहसन्मत्येति तात्पर्य प्राकृतानुकरणं चेदम् ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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