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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशः गाथा १७ उपसर्गाधिकारः टीका - यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथा वैतरणी नदीनां मध्येऽत्यन्तवेगवाहित्वात् विषमतटत्वाच्च 'दुस्तरा' दुर्लङ्घया 'एवम्' अस्मिन्नपि लोके नार्यः 'अमतिमता' निर्विवेकेन हीनसत्त्वेन दुःखेनोत्तीर्यन्ते, तथाहि कृतविद्यानपि स्वीकुर्वन्ति, तथा चोक्तम् - ता: हावभावैः सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भूचापाक्षेपमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ||१|| तदेवं वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यो भवन्तीति ॥१६॥ अपि च टीकार्थ यथा शब्द उदाहरण बताने के लिए आया है। जैसे नदीओं में वैतरणी नदी अति वेगवती और विषम तटवाली होने के कारण दुःख से लङ्घन करने योग्य है । इसी तरह इसलोक में पराक्रम हीन विवेक रहित पुरुषों से स्त्रियां दुस्तर हैं। स्त्रियाँ हावभाव के द्वारा विद्वानों को वश कर लेती हैं। किसी कवि ने कहा है कि पुरुष शुभ कर्म में तभी तक स्थित रहता है और इन्द्रियों पर तभी तक अपना प्रभुत्व रखता है तथा लज्जा भी तभी तक करता है एवं विनय भी तभी तक धारण करता है। जब तक स्त्रियों के द्वारा भ्रुकुटिरूपी धनुष को कान तक खींचकर चलाये हुए नीलपक्षवाले दृष्टिबाण, उसके ऊपर नहीं गिरते हैं ॥१॥ अतः स्त्रियाँ वैतरणी नदी के समान दुस्तर हैं ॥ १६ ॥ जेहिं नारीण संजोगा, पूणा पिट्ठतो कता । सव्वमेयं निराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए ।।१७।। छाया यैर्नारीणां संयोगाः पूजना पृष्ठतः कृता । सर्वमेतनिराकृत्य ते स्थिताः सुसमाधिना ॥ अन्वयार्थ - ( जेहिं) जिन पुरुषों ने (नारीणं संजोगा ) स्त्रियों का सम्बन्ध ( पूयणा) और कामशृंगार को ( पिट्ठतो कता) छोड़ दिया है (ते) पुरुष (एयं सव्वं निराकिच्चा) समस्त उपसर्गों को तिरस्कार करके ( सुसमाहिए ठिया) प्रसन्नचित्त होकर रहते हैं । वे भावार्थ - जिन पुरुषों ने स्त्रीसंसर्ग और कामशृंगार को छोड़ दिया है, वे समस्त उपसर्गों को जीतकर उत्तम समाधि के साथ निवास करते हैं । टीका 'यैः' उत्तमसत्त्वैः स्त्रीसङ्गविपाकवेदिभिः पर्यन्तकटवो नारीसंयोगाः परित्यक्ताः, तथा तत्सङ्गार्थमेव वस्त्रालङ्कारमाल्यादिभिरात्मनः 'पूजना' कामविभूषा 'पृष्ठतः कृता' परित्यक्तेत्यर्थः, 'सर्वमेतत्' स्त्रीप्रसङ्गादिकं क्षुत्पिपासादिप्रतिकूलोपसर्गकदम्बकं च निराकृत्य ये महापुरुषसेवितपन्थानं प्रति प्रवृत्तास्ते सुसमाधिना - स्वस्थचित्तवृत्तिरूपेण व्यवस्थिताः, नोपसर्गैरनुकूलप्रतिकूलरूपैः प्रक्षोभ्यन्ते, अन्ये तु विषयाभिष्वङ्गिणः स्त्र्यादिपरीषहपराजिता अङ्गारोपरिपतितीनवद्रागाग्निना दह्यमाना असमाधिना तिष्ठन्तीति ॥१७॥ - टीकार्थ स्त्री संसर्ग के फल को जानने वाले जिन पुरुषों ने अंत में कटु फल देने वाले स्त्रीसंसर्ग को त्याग दिया है तथा स्त्री संसर्ग के लिए ही जो वस्त्र, अलंकार और फूलमालादि के द्वारा अपने शरीर को मण्डित किया जाता है, उस कामविभूषा को भी त्याग दिया है, वे पुरुष, स्त्री प्रसंग आदि तथा क्षुधापिपासा ( प्यास) आदि अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतकर महापुरुषों से सेवित मार्ग में प्रवृत्त हैं, अतः वे प्रसन्न चित्तवृत्ति रूप उत्तम समाधि के साथ स्थित रहते हैं, वे पुरुष अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों से कदापि चंचल नहीं होते हैं परंतु दूसरे पुरुष जो विषयलोलुप तथा स्त्री आदि परीषहों से जीते जा चुके हैं, वे आग पर पड़ी हुई मच्छली की तरह रागरूपी अग्नि में जलते हुए अशान्ति के साथ निवास करते हैं ||१७|| - २३९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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