SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशके: गाथा १५-१६ उपसर्गाधिकारः तथा धन के घमण्ड से और युवावस्था के मद से जो कार्य नहीं किये जाते हैं, वे जब उमर बीतने पर याद आते हैं तो हृदय को अत्यन्त पीडित करते हैं ॥२॥ ॥१४॥ - ये तूत्तमसत्त्वतया अनागतमेव तपश्चरणादावुद्यमं विदधति न ते पश्चाच्छोचन्तीति दर्शयितुमाह - - जो पुरुष उत्तम पराक्रमी होने के कारण पहले ही तपस्या आदि का आचरण करते हैं, वे पीछे पश्चात्ताप नहीं करते हैं । यह दर्शाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - जेहिं काले परिक्कंतं, न पच्छा परितप्पए । ते धीरा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीविअं ॥१५॥ छाया - यः काले पराक्रान्तं, न पश्चात् परितप्यन्ते । ते धीरा बन्धनोन्मुक्ताः, नावकाक्षन्ति जीवितम् ॥ अन्वयार्थ - (जेहिं) जिन पुरुषों ने (काले) धर्मोपार्जनकाल में (परक्कन्त) धर्मोपार्जन किया है (ते) वे (पच्छा) पीछे (न परितप्पए) पश्चात्ताप नहीं करते हैं । (बंधणुम्मुक्का) बन्धन से छुटे हुए (ते धीरा) वे धीर पुरुष (जीविअं) असंयम जीवन की (नावकंखंति) इच्छा नहीं करते हैं। भावार्थ - धर्मोपार्जन के समय में जिन पुरुषों ने धर्मोपार्जन किया हैं, वे पश्चात्ताप नहीं करते हैं । बन्धन से छुटे हुए वे धीर पुरुष असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं। टीका - 'यैः आत्महितकर्तृभिः 'काले' धर्मार्जनावसरे 'पराक्रान्तम्' इन्द्रियकषायपराजयायोद्यमो विहितो न ते 'पश्चात्' मरणकाले वृद्धावस्थायां वा 'परितप्यन्ते' न शोकाकुला भवन्ति, एकवचननिर्देशस्तु सौत्रश्च्छान्दसत्वादिति, धर्मार्जनकालस्तु विवेकिनां प्रायशः सर्व एव, यस्मात्स एव प्रधानपुरुषार्थः, प्रधान एव च प्रायशः क्रियमाणो घटां प्राञ्चति, ततश्च ये बाल्यात्प्रभृत्यकृतविषयासङ्गतया कृततपश्चरणाः ते 'धीराः' कर्मविदारणसहिष्णवो बन्धनेन - स्नेहात्मकेन कर्मणा चोत् - प्राबल्येन मुक्ता नावकाङ्क्षन्ति असंयमजीवितं, यदिवा - जीविते मरणे वा निःस्पृहाः संयमोद्यममतयो भवन्तीति ॥१५॥ अन्यच्च - टीकार्थ - अपने आत्मा का हित सम्पादन करनेवाले जिन पुरुषों ने धर्म के उपार्जनकाल में इंद्रिय और कषायों का विजय करने के लिए अतीव उद्योग किया है, वे मरणकाल में अथवा वृद्धावस्था में पश्चात्ताप नहीं करते हैं । यहां 'परितप्पए' इस पद में एकवचन निर्देश सूत्र होने के कारण छान्दस समझना चाहिए । जो पुरुष विवेकसम्पन्न हैं, उनके लिए प्रायः सभी समय धर्मोपार्जन का ही काल है, क्योंकि धर्मोपार्जन ही प्रधान पुरुषार्थ है, अतः प्रधान पुरुषार्थ के लिए उद्योग करना ही सबसे उत्तम है । जो पुरुष बाल्यकाल से ही विषयभोग का संसर्ग न करते हुए तपस्या में प्रवृत्त रह चुके हैं, वे कर्म को विदारण करने में समर्थ धीर हैं। वे पुरुष स्नेहात्मक बन्धन से अत्यन्त छुटे हुए असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं। अथवा वे जीवन और मरण में निःस्पृह रहकर संयम के अनुष्ठान में चित्त रखते हैं ॥१५।। जहा नई वेयरणी, दुत्तरा इह संमता । एवं लोगंसि नारीओ, दुरुत्तरा अमईमया ॥१६॥ छाया - यथा नदी वैतरणी दुस्तरेह सम्मता । एवं लोके नार्यो दुस्तरा भमतिमता ॥ अन्वयार्थ - जहां जैसे (इह) इस लोक में (वेयरणी नदी) वैतरणी नदी (दुत्तरा सम्मता) दुस्तर मानी गयी है (एव) इसी तरह (लोगंसि) लोक में (नारीओ) स्त्रियाँ (अमईमया) निर्विवेकी मनुष्य से (दुरुत्तरा) दुस्तर मानी गयी हैं । भावार्थ - जैसे अतिवेगवती वैतरणी नदी दुस्तर है, इसी तरह निर्विवेकी पुरुष से स्त्रियाँ दुस्तर हैं। २३८
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy