SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा १७ उपसर्गाधिकारः तु' नैवैताभिर्यथा गृहस्थेनैव पिण्डदानादिना यतेग्लानाद्यवस्थायामुपकर्तव्यं न तु यतिभिरेव परस्परमित्येवम्भूताभिः युष्मदीयाभिः ‘दृष्टिभिः' धर्मप्रज्ञापनाभिः 'पूर्वम्' आदौ सर्वज्ञैः 'प्रकल्पितं' प्ररूपितं प्रख्यापितमासीदिति, यतो न हि सर्वज्ञा एवम्भूवं परिफल्गुप्रायमर्थं प्ररूपयन्ति यथा - असंयतैरेषणाद्यनुपयुक्कैनानादेवैयावृच्यं विधेयं न तूपयुक्तन संयतेनेति । अपि च - भवद्भिरपि ग्लानोपकारोऽभ्युपगत एव, गृहस्थप्रेरणादनुमोदनाच्च, ततो भवन्तस्तत्कारिणस्तत्प्रवेषिणश्चेत्यापन्नमिति ॥१६॥ अपि च - टीकार्थ - धर्म की प्रज्ञापना अर्थात् देशना जैसे कि दान आदि देकर यतिओं का उपकार करना चाहिए वह गृहस्थों को पवित्र करनेवाली है, साधुओं को नहीं, क्योंकि साधु अपने अनुष्ठानों से ही शुद्ध होते हैं। अत: उनको दान देने का अधिकार नहीं है । इस सिद्धान्त को दूषित करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं कि - गृहस्थ को ही रोगादि अवस्था में आहार आदि देकर साधु का उपकार करना चाहिए परन्तु साधुओं को परस्पर ऐसा नहीं करना चाहिए इस प्रकार की तुम्हारी दृष्टि के अनुसार पूर्व समय में सर्वज्ञों ने धर्मदेशना नहीं कि थी क्योंकि सर्वज्ञ पुरुष इस प्रकार अत्यन्त तुच्छ अर्थ की प्ररूपणा नहीं करते हैं जैसे कि - एषणा आदि में उपयोग नहीं रखनेवाले असंयत पुरुष ही रोगी आदि साधु का वैयावच्च करें परंतु उपयोग रखनेवाले संयमी पुरुष न करें ऐसी देशना सर्वज्ञ की नहीं हो सकती ।। तथा आप लोग भी रोगी साधु का वैयावच्च करने के लिए गृहस्थ को प्रेरणा करते हैं तथा इस कार्य के अनुमोदन करने से रोगी साधु का उपकार करना अङ्गीकार भी करते हैं। इसलिए आप रोगी साधु का उपकार भी करते हैं। और इस कार्य से द्वेष भी करते हैं ॥१६॥ सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, अचयंता जवित्तए । ततो वायं णिराकिच्चा, ते भुज्जोवि पगब्भिया ॥१७॥ छाया - सर्वाभिरनुयुक्तिभिरशक्नुवन्तो यापयितुम् । ततो वादं निराकृत्य ते भूयोऽपि प्रगल्भिताः ॥ अन्वयार्थ - (सव्वाहि अणजत्तीहिं) सर्व युक्तियों के द्वारा (जवित्तए अचयंता) अपने पक्ष की सिद्धि न कर सकने से (ते) वे अन्यतीर्थी (वायं णिराकिच्चा) वाद को छोड़कर (भुजो वि पगब्मिया) फिर अपने पक्ष को स्थापन करने की धृष्टता करते हैं। भावार्थ - अन्यतीर्थी, सम्पूर्ण युक्तियों के द्वारा जब अपने पक्ष को स्थापन करने में समर्थ नहीं होते हैं, तब वाद को छोड़कर फिर दूसरी तरह से अपने पक्ष की सिद्धि की धृष्टता करते हैं । टीका - ते गोशालकमतानुसारिणो दिगम्बरा वा सर्वाभिरर्थानुगताभिर्युक्तिभिः सर्वैरेव हेतुदृष्टान्तैः प्रमाणभूतैरशक्नुवन्तः स्वपक्षे आत्मानं 'यापयितुम्' संस्थापयितुम् 'ततः' तस्माद्युक्तिभिः प्रतिपादयितुम् सामर्थ्याभावाद् 'वादं निराकृत्य' सम्यग्हेतुदृष्टान्तैर्यो वादो - जल्पस्तं परित्यज्य ते तीर्थिका 'भूयः' पुनरपि वादपरित्यागे सत्यपि 'प्रगल्भिता' धृष्टतां गता इदमूचुः, तद्यथा - पुराणं मानवी धर्मः, साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ||१|| 1. रोगी साधु की वैयावच्च गृहस्थ का धर्म है अर्थात् गृहस्थ रोगी साधु को आहार आदि लाकर देवे परंतु साधु न देवे यह अन्यतीर्थियों की प्ररूपणा है । वे अन्यतीर्थी कहते हैं कि साधु को दान देना आदि धर्म शास्त्र में लिखा है परंतु वह धर्म गृहस्थों के लिए हैं, साधु के लिए नहीं क्योंकि साधु को दान देने का अधिकार नहीं है । इस सिद्धान्त को खण्डन करने के लिए यह १६ वी गाथा लिखी गयी है इस गाथा में कहा है कि रोगी साधु को गृहस्थ के द्वारा वैयावच्च कराना तथा स्वयं रोगी साधु का वैयावच्च नहीं करना ऐसी तुच्छ प्ररूपणा सर्वज्ञ की नहीं हो सकती क्योंकि एषणा आदि में उपयोग नहीं रखने वाले असंयमी पुरुष साधु का वैयावच्च करें परंतु उपयोग रखनेवाले संयमी पुरुष न करें ऐसा दोष जनक उपदेश सर्वज्ञ का नहीं हो सकता । अतः रोगी साधु की वैयावच्च साधु को नहीं करनी चाहिए । इत्यादि अन्यतीर्थी का आक्षेप शास्त्र विरुद्ध और निरर्थक है। ०००
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy