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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोदेशके: गाथा १५ - १६ उपसर्गाधिकारः हैं कि- जो रोगी साधु को आहार लाकर देते हैं, वे गृहस्थ के समान हैं, यह आप बिना विचारे कहते हैं तथा आप जो कार्य करते हैं, वह भी विचार शून्य ही है। आपका कार्य जिस प्रकार विवेक रहित है, सो 'नातिकण्डूयितं श्रेय:' इस पद्य में पहले कह दिया गया है और फिर से उसी को दृष्टान्त के साथ बतलाते हैं ||१४|| यथाप्रतिज्ञातमाह शास्त्रकार अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार कहते हैं एरिसा जावई एसा, अग्गवेणु व्व करिसिता । गिहिणो अभिहडं सेयं, भुंजिउं ण उ भिक्खुणं - ।।१५।। छाया - ईदृशी या वागेषा, अग्रवेणुरिव कर्षिता । गृहिणोऽभ्याहृतं श्रेयः, भोक्तुं न तु भिक्षूणाम् ॥ अन्वयार्थ - (एरिसा) इस तरह की (जा) जो (वई) कथन है कि (गिहिणो अभिहडं) गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार (भुजिउं सेयं) साधु को खाना कल्याणकारी है (ण उ भिक्खुणं) परन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ नहीं (एसा) यह बात (अग्गवेणु व्व) वांस के अग्र भाग की तरह (करिसिता) कृश - दुर्बल है । भावार्थ - साधु को गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार खाना कल्याणकारी है, परन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ आहार खाना कल्याणकारी नहीं है, यह कथन युक्ति रहित होने के कारण इस प्रकार दुर्बल है, जैसे वांस का अग्रभाग दुर्बल होता है । टीका - येयमीदृक्षा वाक् यथा यतिना ग्लानस्यानीय न देयमित्येषा अग्रे वेणुवद् - वंशवत् कर्षिता तन्वी युक्त्यक्षमत्वात् दुर्बलेत्यर्थः, तामेव वाचम् दर्शयति - 'गृहिणां' गृहस्थानां यदभ्याहृतं तद्यतेर्भोक्तुं 'श्रेयः' श्रेयस्करं, न तु भिक्षूणां सम्बन्धीति, अग्रे तनुत्वं चास्या वाच एवं द्रष्टव्यं यथा गृहस्थाभ्याहृतं जीवोपमर्देन भवति, यतीनां तूद्गमादिदोषरहितमिति ॥ १५॥ किञ्च - टीकार्थ - यह जो इस प्रकार का वाक्य है कि साधु को रोगी साधु के लिए आहार लाकर नहीं देना चाहिए यह वांस के अग्र भाग के समान पतला अर्थात् युक्ति रहित होने के कारण दुर्बल है । इसी वाक्य को शास्त्रकार दिखलाते हैं गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार खाना साधु को कल्याणकारी है परन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ नहीं यह कथन वांस के अग्रभाग के समान कृश इसलिए कि गृहस्थों के द्वारा लाया हुआ आहार जीवों के घात के साथ होता है और साधुओं के द्वारा लाया हुआ आहार उद्गमादि दोष रहित होता है ||१५|| - धम्मपन्नवणा जा सा, सारंभाण विसोहिआ । ण उ एयाहिं दिट्ठीहिं, पुव्वमासिं पगप्पिअं ।।१६।। छाया - धर्मप्रज्ञापना या सा सारम्भाणां विशोधिका । न त्वेताभिर्दृष्टिभिः पूर्वमासीत्प्रकल्पितम् ॥ अन्वयार्थ - ( जा धम्मपन्नवणा) साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए यह जो धर्म की देशना है (सा) वह ( सारंभा ण विसोहिआ) गृहस्थों को शुद्ध करनेवाली है, साधुओं को नहीं (एयाहिं दिट्ठीहिं) इस दृष्टि से (पुव्वं) पहले (ण उ पगप्पिअं आसिं) यह देशना नहीं की गयी थी । भावार्थ - साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए यह जो धर्म की देशना है वह गृहस्थों को ही पवित्र करने वाली है, साधुओं को नहीं इस अभिप्राय से यह धर्म की देशना नहीं की गयी थी । टीका धर्मस्य प्रज्ञापना देशना यथा यतीनां दानादिनोपकर्तव्यमित्येवम्भूता या सा 'सारम्भाणां' गृहस्थानां विशोधिका, यतयस्तु स्वानुष्ठानेनैव विशुध्यन्ति, न तु तेषां दानाधिकारोऽस्तीत्येतत् दूषयितुं प्रक्रमते - 'न २१९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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