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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना लेने चाहिए |४| इसी तरह गंध, रस स्पर्श और संस्थानों के भी अनेक प्रकार के संयोगज परिणाम होते हैं |५| कृष्णादि वर्णों के परस्पर संयोग से उत्पन्न होनेवाले परिणामों के एकतीस भंगों की पूर्ति इस प्रकार करनी चाहिए । दो-दो वर्णों के संयोग दश और तीन-तीन के संयोग दश होते हैं । चार के संयोग पाँच और पाँच का संयोग एक तथा प्रत्येक वर्ण पाँच होते हैं । ये सब मिलकर एकतीस भेद होते हैं। परमाणु से लेकर अनंतानंत प्रदेशी सूक्ष्म स्कंध अगुरुलघु परिणाम हैं । तत, वितत, घन और सुषिर भेद से शब्द परिणाम चार प्रकार का है। तथा तालु और ओष्ठ आदि के व्यापार से भी शब्दपरिणाम होता है । छाया आदि दूसरे भी पुद्गलों के परिणाम होते हैं । वे ये हैं । - छाया, आतप, उद्योत, अंधकार और स्पंदन। ये पुद्गलों के परिणाम हैं ॥१॥ ठंडी, अति प्रकाश रहित, आदित्य वर्जित, अनेक भेदवाली छाया होती है । उष्ण प्रकाश को 'आतप' कहते हैं |२| जो ठंड़ा भी नहीं है और गर्म भी नहीं है, ऐसे सम प्रकाश को उद्योत कहते हैं । काला और मलिन तम को अंधकार जानो | ३ | द्रव्य का चलना प्रस्पंदना कहलाता है और उसी को गति कहते हैं । वह गति, विस्रसा, प्रयोग, मिश्रण, अपने, दूसरे तथा दोनों से उत्पन्न होती है ॥४॥ मेघ, इंद्रधनुष और विद्युत् आदि कार्य्यद्रव्यों में जो पुद्गलद्रव्य परिणत हुए हैं, वह विस्रसाकरण है ||८||नि० || गतं द्रव्यकरणम्, इदानीं क्षेत्रकरणाभिधित्सयाऽऽह । ण विणा आगासेणं कीरइ जं किंचि खेतमागासं । वंजणपरियावण्णं उच्छुकरणमादियं बहुहा ॥९॥ नि० ‘क्षि-निवासगत्योः' अस्मादधिकरणे ष्ट्रना क्षेत्रमिति, तच्चावगाहदानलक्षणमाकाशं तेन चावगाहदानयोग्येन विना न किञ्चिदपि कर्तुं शक्यत इत्यतः क्षेत्रे करणं क्षेत्रकरणं, नित्यत्वेऽपि चोपचारत: क्षेत्रस्यैव करणं क्षेत्रकरणम्, यथा गृहादावपनीते कृतमाकाशमुत्पादिते विनष्टमिति । यदिवा व्यञ्जनपर्य्यायापन्नं शब्दद्वाराऽऽयातम् । 'इक्षुकरणादिक'मिति, इक्षुक्षेत्रस्य करणं- लाङ्गलादिना संस्कारः क्षेत्रकरणं तच्च बहुधा - शालिक्षेत्रादिभेदादिति ॥९॥नि०।। द्रव्यकरण कहा जा चुका, अब क्षेत्रकरण बताने के लिए कहते हैं निवास और गति अर्थ में 'क्षि' धातु का प्रयोग होता है । इस 'क्षि' धातु से अधिकरण अर्थ में 'ष्ट्रन्' प्रत्यय होकर 'क्षेत्र' शब्द बनता है । अवगाहन देनेवाला आकाश 'क्षेत्र' कहलाता है । उस अवगाहन देनेवाले आकाश के बिना कुछ भी कार्य्य नहीं किया जा सकता है, अतः आकाश में कोई कार्य्य करना 'क्षेत्रकरण' कहलाता है अथवा क्षेत्र यानी आकाश को ही उत्पन्न करना क्षेत्रकरण कहलाता है । यद्यपि आकाश नित्य है तथापि उपचार से आकाश का भी किया जाना जानना चाहिए जैसे घर आदि को तोड़ देने पर आकाश किया गया और घर आदि बना देनेपर आकाश नष्ट हो गया, यह औपचारिक व्यवहार होता है । अथवा व्यंजन पर्य्याय को प्राप्त क्षेत्र के करण को क्षेत्रकरण कहते हैं । हल चलाकर खेत को ईख आदि उत्पन्न करने योग्य बनाना क्षेत्रकरण है । वह शालिक्षेत्र आदि भेद से बहुत प्रकार का होता है || ९ || नि० || साम्प्रतं कालकरणाभिधित्सयाऽऽह कालो जो जायइओ जं कीरड़ जंमि जंमि कालंमि । ओहेण णामओ पुण करणा एक्कारस हवंति ॥१०॥ नि० कालस्याऽपि मुख्यं करणं न संभवतीत्यौपचारिकं दर्शयति - "कालो यो यावानिति" यः कश्चिद् घटिकादिको 1. साहूहिं अच्छमाणेहिं गामो खेत्तीकओ चू. । 19
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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