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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना जड़ कालगमेगगुणं सुक्किलयंपि य हविज्ज बहुयगुणं । परिणामिज्जड़ कालं सुक्केण गुणाहियगुणेणं ॥१॥ जड़ सुक्किलमेगगुणं कालगदव्वं तु बहुगुणं जड़ य । परिणामिज्जड़ सुक्कं कालेण गुणाहियगुणेणं ॥२॥ जड़ सुक्कं एक्कगुणं कालगदव्यंपि एक्कगुणमेव । कायोयं परिणामं तुल्लगुणतेण संभवड़ રો एवं पंचवि वण्णा संजोएणं तु यण्णपरिणामो । एकतीसं भंगा सव्वेवि य ते मुणेयव्वा एमेव य परिणामो गंधाण रसाण तह य फासाणं । संठाणाण य भणिओ संजोगेणं बहुविगप्पो ॥५॥ __एकत्रिंशदङ्गा एवं पूर्यन्ते-दशद्विकसंयोगाः दश त्रिकसंयोगाः पञ्चचतुष्कसंयोगा एकः पञ्चकसंयोगः प्रत्येक वर्णाश्च पञ्चेति । अगुरुलघुपरिणामस्तु परमाणोरारभ्य यावदनन्तानन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः सूक्ष्माः । शब्दपरिणामस्ततविततघनशुषिरभेदाच्चतुर्धा। तथा ताल्वोष्ठपुटव्यापाराद्यभिनिर्वय॑श्च, अन्येऽपि च पुद्गलपरिणामाश्छायादयो भवन्ति, ते चामीछाया य आययो या, उज्जोओ तह य अंधकारो य । एसो उ पुग्गलाणं परिणामो फंदणा चेव ॥१॥ सीया णाइपगासा, छाया णाइच्चिया बहुविगप्पा । उण्हो पुणप्पगासो णायव्यो आययो नाम नयि सीओ नयि उण्हो समो पगासो य होइ उज्जोओ । कालं मइलतमंपि य वियाण तं अंधयारंति ॥३॥ दव्यस्स चलण पप्पंदणा उ सा पुण गई उ निद्दिट्ठा । वीससपओगमीसा, अत्तपरेणं तु उभओवि ॥४॥ तथाऽभ्रेन्द्रधनुर्विद्युदादिषु कार्येषु यानि पुद्गलद्रव्याणि परिणतानि तद्विस्रसाकरणमिति ।।८॥नि०।। प्रयोगकरण बताकर अब विस्त्रसाकरण बताने के लिए कहते हैं विस्रसाकरण, सादि और अनादि भेद से दो प्रकार का है । धर्म, अधर्म और आकाश का परस्पर एक दूसरे को वेध कर स्थित रहना अनादि विस्रसाकरण है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनो परस्पर मिलकर रहते हैं, इसलिए अनादि होने पर भी इनमें करण (क्रिया) होना विरुद्ध नहीं है । रूपी द्रव्य, द्वयणुकादिक्रम से भेद और संघात के द्वारा जो स्कंधरूप में आते हैं, वह सादिकरण हैं । पुद्गल द्रव्यों का परिणाम दश प्रकार का होता है। वह यह है- (१) बन्धन, (२) गति, (३) संस्थान, (४) भेद, (५) वर्ण, (६) गंध, (७) रस, (८) स्पर्श, (९) अगुरुलघु, (१०) और शब्द रूप । स्निग्ध और रूक्षता के कारण बंध परिणाम होता है। दूसरे देश को प्राप्त करना गति परिणाम है । परिमंडल आदि भेद से संस्थानपरिणाम, पाँच प्रकार का होता है । खंड, प्रतर, चूर्णक, अनुतटिका और उत्करिका भेद से भेदपरिणाम पाँच प्रकार का होता है। खंड आदि के स्वरूप को बतानेवाली ये दो गाथायें (खंडेहिं खंड भेयं) खंड यानी टुकड़ा-टुकड़ा हो जाना खंड भेद है। तथा अभ्रक के समान एक-एक तह अलग-अलग हो जाना प्रतर भेद है। चूर्ण किये हुए पदार्थ के चूर्ण को चूर्णित भेद कहते हैं । बाँस के छिलकों को अलग-अलग कर देना अनुतटिका भेद है। सूखे हुए तालाब की फटी हुई दरारें उत्करिका भेद हैं। इस प्रकार पुद्गलों के स्वाभाविक, प्रायोगिक, मिश्र, संघात और वियोगरूप नानाविध भेद होते हैं । श्वेत आदि पाँच वर्णों का अन्यवर्ण के आकार में परिणत होना तथा दो या तीन वर्ण मिलकर एक नया वर्ण बन जाना, वर्णपरिणाम कहलाता है । इसका स्वरूप इन गाथाओं से जानना चाहिए । वे गाथायें ये हैं (जइ) यदि काला रंग एक गुणवाला हो और शुक्ल रंग बहुत गुणवाला हो तो काला रंग, अधिक गुणवाले शुक्ल गुण के रूप में परिणत हो जाता है ।१। यदि शुक्ल द्रव्य एक गुणवाला हो और काला द्रव्य बहुत गुणवाला हो तो शुक्लवर्ण अधिक गुणवाले काले वर्ण के रूप में परिणत हो जाता है ।२। शुक्लवर्ण यदि एक गुणवाला हो और काला वर्ण भी एक गुणवाला ही हो तो वहाँ दोनों के तुल्यगुण होने से कपोतवर्ण उत्पन्न होता है ।३। वर्ण पाँच प्रकार के होते हैं । इनके संयोग से वर्णपरिणाम होता है। इस प्रकार वर्णपरिणाम के एकतीस भेद स्वयं जान 1. छाया चातपो वोद्योतस्तथैवान्धकारच च । एष एव पुद्गलानां परिणामःस्पदनं चैव ।।१।। शीता नातिप्रकाशा छाया अनादित्यिका बहु विकल्पा । उष्णः पुनः प्रकाशो ज्ञातव्य आतपो नाम ॥२॥ नापि शीतो नाप्युष्णः समः प्रकाशो भवति चोद्योतः । कालं मलिनं तमोऽपि च विजानीहि तदन्धकार इति ।।३।। द्रव्यस्य चलनं प्रस्पन्दना तु सा पुनर्गतिस्तु निर्दिष्टा । विश्रसाप्रयोगमिश्रादात्मपराभ्यां तूभयतोऽपि ॥४।। 18
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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