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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा ४-५ उपसर्गाधिकारः तत्थ मंदा विसीयंति, रज्जहीणा व खत्तिया ॥४॥ छाया - यदा हेमन्तमासे शीतं स्पृशति सर्वाङ्गम् । तत्र मब्दा विषीदन्ति राज्यहीना इव क्षत्रियाः || अन्वयार्थ - (जया) जब (हेमन्तमासंमि) हेमन्तऋतु के मास में (सीतं) शीत (सव्वर्ग) सर्वाङ्ग को (फुसइ) स्पर्श करती है (तत्थ) तब (मंदा) मूर्ख पुरुष (रजहीणा) राज्यभ्रष्ट (खत्तिया व) क्षत्रिय की तरह (विसीयंति) विषाद का अनुभव करते हैं। ___ भावार्थ - जब हेमन्त ऋतु के मासों में शीत, सब अंगों को स्पर्श करती है, उस समय मूर्ख जीव राज्यभ्रष्ट क्षत्रिय की तरह विषाद अनुभव करते हैं। ___टीका - 'जया हेमन्ते' इत्यादि 'यदा' कदाचित् 'हेमन्तमासे' पौषादौ 'शीतं' सहिमकणवातं 'स्पृशति' लगति 'तत्र' तस्मिन्नसह्ये शीतस्पर्श लगति सति एके 'मंदा' जडा गुरुकर्माणो 'विषीदन्ति' दैन्यभावमुपयान्ति 'राज्यहीना' राज्यच्युताः यथा - क्षत्रिया राजान इवेति ॥४॥ टीकार्थ - जब कभी हेमन्तऋतु के पौष आदि मास में हिम के कणों से युक्त वायु के साथ शीत लगने लगती है । उस समय असह्य शीत के स्पर्श से कई मूर्ख गुरुकर्मी पुरुष इस प्रकार विषाद अनुभव करते हैं, जैसे राज्यभ्रष्ट क्षत्रिय राजा विषाद का अनुभव करता है ॥४॥ उष्णपरीषहमधिकृत्याह - अब उष्ण परीषह के विषय में कहते हैं - पुढे गिम्हाहितावेणं, विमणे सुपिवासिए । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥५॥ छाया - स्पृष्टो ग्रीष्माभितापेन विमनाःसुपिपासितः । तत्र मन्दाः विषीदन्ति मत्स्या अल्पोदके यथा । अन्वयार्थ - (गिम्हाहितावेणं) ग्रीष्म ऋतु के अभिताप गर्मी से (पुढे) स्पर्श पाया हुआ (विमणे) उदास (सुपिवासिए) और प्यास से युक्त होकर पुरुष दीन हो जाता है (तत्थ) इस प्रकार उष्ण परीषह प्राप्त होने पर (मंदा) मूढ़ पुरुष (विसीयंति) इस प्रकार विषाद का अनुभव करते हैं (जहा) जैसे (मच्छा) मच्छली (अप्पोदए) थोड़े जल में विषाद अनुभव करती है। भावार्थ- ज्येष्ठ, आषाढ मासों में जब भयंकर गर्मी पड़ने लगती है । उस समय उस गर्मी से पीड़ित और प्यासा हुआ नवदीक्षित साधु उदास हो जाता है । उस समय अल्पशक्ति मूढ़ - पुरुष इस प्रकार विषाद अनुभव करता है, जैसे थोड़े जल में मछली विषाद अनुभव करती हैं। टीका - 'ग्रीष्मे' ज्येष्ठाषाढाख्ये अभितापस्तेन 'स्पृष्टः' छुप्तो व्याप्तः सन् 'विमनाः' विमनस्कः, सुष्ठु पातुमिच्छा पिपासा तां प्राप्तो नितरां तृडभिभूतो बाहुल्येन दैन्यमुपयातीति दर्शयति- 'तत्र' तस्मिन्नुष्णपरीषहोदये 'मन्दा' जडा अशक्ता 'विषीदन्ति' यथा पराभङ्गमुपयान्ति, दृष्टान्तमाह - मत्स्या अल्पोदके विषीदन्ति, गमनाभावान्मरणमुपयान्ति, एवं सत्त्वाभावात्संयमात् प्रश्यन्त इति, इदमुक्तं भवति - यथा मत्स्या अल्पत्वादुदकस्य ग्रीष्माभितापेन तप्ता अवसीदन्ति, एवमल्पसत्त्वाश्चारित्रप्रतिपत्तावपि जल्लमलक्लेदक्लिन्नगात्रा बहिरुष्णाभितप्ताः शीतलान् जलाश्रयान् जलधारागृहचन्दनादीनुष्णप्रतिकारहेतूननुस्मरन्ते - व्याकुलितचेतसः संयमानुष्ठानं प्रति विषीदन्ति ॥५॥ टीकार्थ - ग्रीष्म यानी ज्येष्ठ और आषाढ मास में जो गर्मी पड़ती है, उसे ग्रीष्माभिताप कहते हैं । उस ग्रीष्माभिताप से स्पर्श पाया हुआ पुरुष उदास हो जाता है तथा अत्यंत पिपासित होकर दीनता को प्राप्त करता है। यही सूत्रकार दिखाते हैं - इस प्रकार उष्ण परीषह के उदय होने पर शक्तिहीन मूर्ख-जीव, जिस प्रकार विषाद अनुभव करता हैं, सो दृष्टान्त देकर बताते हैं - जैसे थोड़े जल में मछली विषाद को प्राप्त करती है अर्थात् वह वहां से हटने में असमर्थ होकर जैसे मृत्यु को प्राप्त होती है, इसी तरह शक्तिहीन पुरुष शक्ति न होने के कारण १८५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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