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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा ३ उपसर्गाधिकारः टीकार्थ - वचन के द्वारा अपनी प्रशंसा-पूर्वक गर्जते हुए तथा वेग से विकट चाल चलते हुए अपने आप को शूर माननेवाले कई पुरुष, युद्ध के अग्रभाग में चले तो जाते हैं परन्तु जब युद्ध छिड़ जाता है और सामने आते हुए शत्रुदल के वीर पुरुष जब शस्त्र और अस्त्र की वर्षा करने लगते हैं, उस समय सभी भयभीत हो जाते हैं। यहां तक कि माता अपने गोद से गिरते हुए पुत्र को भी स्मरण नहीं करती है। इस प्रकार मातापुत्रीय सङ्ग्राम में शत्रुदल के सुभट पुरुषों के द्वारा चक्र, कुन्त, नाराच और शक्ति आदि द्वारा नाना प्रकार से क्षत - विक्षत किया हुआ वह अल्पपराक्रमी पुरुष दीन हो जाता है ॥२॥ दान्तिकमाह - दृष्टान्त कहकर अब दार्टान्त बताते हैं - एवं सेहेवि अप्पुढे, भिक्खायरियाअकोविए। सूरं मण्णति अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए ॥३॥ छाया - एवं शिष्योऽष्यस्पृष्टो भिक्षाचर्याऽकोविदः । शूरं मन्यत आत्मानं यावद्रूक्षं न सेवते ॥ अन्वयार्थ - (एवंइसी तरह (भिक्खायरियाअकोविए) भिक्षाचरी में अनिपुण (अप्पुढे) और परीषहों का स्पर्श नहीं पाया हुआ (सेहेवि) अभिनव प्रव्रजित शिष्य भी (अप्पाणं) अपने को (सूरं) तब तक शूर (मण्णइ) मानता है (जाव) जब तक वह (लूह) संयम का (न सेवए) सेवन नहीं करता है। भावार्थ - जैसे कायर पुरुष जब तक शत्रु-वीरों से घायल नहीं किया जाता तभी तक अपने को वीर मानता है इसी तरह भिक्षाचरी में अनिपुण तथा परीषहों के द्वारा स्पर्श नहीं किया हुआ अभिनव प्रव्रजित साधु भी तभी तक अपने को वीर मानता है जब तक वह संयम का सेवन नहीं करता है। टीका - ‘एव' मिति प्रक्रान्तपरामर्शार्थः यथाऽसौ शूरंमन्य उत्कृष्टिसिंहनादपूर्वकं सङ्ग्रामशिरस्युपस्थितः पश्चाज्जेतारं वासुदेवमन्यं वा युध्यमानं दृष्ट्वा दैन्यमुपयाति, एवं 'शैक्षकः' अभिनवप्रव्रजितः परीषहैः 'अस्पृष्टः' अच्छुतः किं प्रव्रज्यायां दुष्करमित्येवं गर्जन् 'भिक्षाचर्यायां' भिक्षाटने 'अकोविदः' अनिपुणः, उपलक्षणार्थत्वादन्यत्रापि साध्वाचारेऽभिनवप्रव्रजितत्वादप्रवीणः, स एवम्भूत आत्मानं तावच्छिशुपालवत् शूरं मन्यते यावज्जेतारमिव 'रूक्षं संयम कर्मसंश्लेषकारणाभावात् 'न सेवते' न भजत इति, तत्प्राप्तौ तु बहवो गुरुकर्माणोऽल्पसत्त्वा भङ्गमुपयान्ति ॥३॥ टीकार्थ - इस गाथा में "एवं' शब्द प्रस्तुत अर्थ को सूचित करने के लिए आया है। जैसे अपने को शूर मानने वाला वह पुरुष उत्कृष्ट सिंहनाद पूर्वक सङ्ग्राम के अग्र भाग में चला जाता है परंतु वहां वह युद्ध करते हुए वासुदेव या अन्य किसी वीरपुरुष को देखकर दीन हो जाता है। इसी तरह परीषहों का स्पर्श नहीं पाया हुआ और भिक्षाचरी तथा दूसरे साधु के आचारों में नूतन प्रव्रजित होने के कारण अनिपुण अभिनव प्रव्रजित साधु, 'प्रव्रज्या पालन करने में क्या दुष्कर है"? इस प्रकार गर्जता है। वह शिशपाल की तरह अपने को त है, जब तक वह विजयी पुरुष की तरह संयम का सेवन नहीं करता है। यहां संयम को रूक्ष इसलिए कहा है कि उसमें कर्म नहीं चिपकते हैं । उस रूक्ष संयम की प्राप्ति होने पर बहुत से गुरुकर्मी अल्प पराक्रमी जीव भङ्ग को प्राप्त होते हैं ॥३॥ संयमस्य रूक्षत्वप्रतिपादनायाह - संयम रूक्ष है यह बताने के लिए कहते हैं - जया हेमंतमासंमि, सीतं फुसइ सव्वगं ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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