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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशके: गाथा १ अथ द्वितीयाध्ययने द्वितीय उद्देशकः प्रारभ्यते । प्रथमानन्तरं द्वितीयः समारभ्यते- अस्य चायमभिसम्बन्धः इहानन्तरोद्देशके भगवता स्वपुत्राणां धर्मदेशनाऽभिहिता, तदिहापि सैवाध्ययनार्थाधिकारत्वादभिधीयते । सूत्रस्य सूत्रेण सम्बन्धोऽयम् - अनन्तरोक्तसूत्रे बाह्यद्रव्यस्वजनारम्भपरित्यागोऽभिहितः, तदिहाप्यान्तरमानपरित्याग उद्देशार्थाधिकारसूचितोऽभिधीयते । तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् - प्रथम उद्देशक कहने के पश्चात् अब दूसरा उद्देशक प्रारम्भ किया जाता है । इस दूसरे उद्देशक का प्रथम उद्देशक के साथ सम्बन्ध यह है- प्रथम उद्देशक में भगवान् श्री ऋषभदेव स्वामी ने अपने पुत्रों को धर्म का उपदेश दिया है, वही धर्मोपदेश इस दूसरे उद्देशक में भी दिया जाता है, क्योंकि दूसरे अध्ययन का अर्थाधिकार धर्मोपदेश ही है। सूत्र के साथ सूत्र का सम्बन्ध यह है - पूर्व सूत्र में कहा है कि- विवेकी पुरुष को बाह्य द्रव्य, स्वजन वर्ग और आरंभ छोड़ देने चाहिए । अब इस सूत्र में कहा जाता है कि विद्वान् पुरुष को आन्तरिक मान छोड़ देना चाहिए । यह उद्देशक के अर्थाधिकार में भी सूचित किया गया है, इस सम्बन्ध से अवतीर्ण इस उद्देशक का प्रथम सूत्र यह है — --- तयसं व जहाइ से रयं, इति संखाय मुणी ण मज्जई । गोयन्नतरेण माहणे, अहऽसेयकरी अन्नेसी इंखिणी मानपरित्यागाधिकारः छाया - त्वचमिव जहाति स रजः इति संख्याय मुनिर्न माद्यति । गोत्रान्यतरेण माहनोऽथाश्रेयस्कर्य्यन्येषामीक्षिणी ॥ 11811 व्याकरण - (तयसं) उपमान कर्म (व) इवार्थक अव्यय (जहाइ) क्रिया (से) सर्वनाम, कर्ता का विशेषण ( रयं ) कर्म (इति) अव्यय ( संखाय ) पूर्व कालिक क्रिया (मुणी) कर्ता (ण) अव्यय (मज्जई) क्रिया (गोयन्त्रतरेण) हेतु तृतीयान्त (माहणे) साधु का वाचक, कर्ता ( असेयकरी ) इखिणी का विशेषण (अन्नेसी) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद ( इखिणी ) कर्ता । - अन्वयार्थ - ( तयसं व) जैसे सर्प अपनी त्वचा को (जहाइ) छोड़ देता है इसी तरह (से) वह साधु ( रयं ) आठ प्रकार के कर्म रज को छोड़ देता है (इति) यह ( संखाय ) जानकर (मुणी माहणे) मुनि (गोयन्त्रतरेण) गोत्र तथा दूसरे मद के कारणों से (ण मज्जई) मद नहीं करते हैं ( अनेसी) दूसरे की (इखिणी) निन्दा (असेयकरी) कल्याण का नाश करनेवाली है, इसलिए साधु किसी की निन्दा नहीं करते हैं । भावार्थ - जैसे सर्प अपनी त्वचा को छोड़ देता इसी तरह साधु अपने आठ प्रकार के कर्म रज को छोड़ देते हैं। यह जानकर संयमधारी मुनि अपने कुल आदि का मद नहीं करते हैं, तथा वे दूसरे की निन्दा भी नहीं करते हैं, क्योंकि दूसरे की निन्दा कल्याण का नाश करती है । टीका यथा उरगः स्वां त्वचमवश्यं परित्यागार्हत्वात् जहाति परित्यजति, एवमसावपि साधुः रज इव रजः अष्टप्रकारं कर्म तद् अकषायित्वेन परित्यजतीति । एवं कषायाभावो हि कर्माभावस्य कारणमिति संख्याय ज्ञात्वा मुनिः कालत्रयवेदी, न माद्यति मदं न याति मदकारणं दर्शयति-गोत्रेण काश्यपादिना, अन्यतरग्रहणात् शेषाणि मदस्थानानि गृह्यन्त इति, 'माहण' त्ति साधुः, पाठान्तरं वा 'जे विउ' त्ति, यो विद्वान् विवेकी स जातिकुललाभादिभिर्न माद्यतीति, न केवलं स्वतो मदो न विधेयः, जुगुप्साऽप्यन्येषां न विधेयेति दर्शयति- अथ अनन्तरमसौ अश्रेयस्करी पापकारिणी इंखिणि' त्ति निन्दा अन्येषामतो न कार्य्येति । " मुणी ण मज्जइ" इत्यादिकस्य सूत्रावयवस्य सूत्रस्पर्शं गाथाद्वयेन निर्युक्तिकृदाह " तवसंजमणाणेसु वि, जइ माणो वज्जिओ महेसीहिं । अत्तसमुक्करिसत्थं किं पुण हीला उ अन्नेसिं? ॥ ४३ ॥ नि० जड़ ताव निज्जरमओ, पडिसिद्धो अट्टमाणमहणेहिं । अविसेसमयट्ठाणा परिहरियव्या पयत्तेणं ॥४४॥नि० वेयालियस्स णिज्जत्ती सम्मत्ता । १३३
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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