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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा २२ हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः मार्गोऽनुष्ठेयः नासदनुष्ठानप्रगल्भैर्भाव्यमिति ॥२१॥ टीकार्थ - माता-पिता आदि में मूर्च्छित पुरुष, पाप कर्म करने में धृष्ट हो जाता हैं, इसलिए हे पुरुष ! तूं मुक्ति जाने योग्य अथवा राग-द्वेष रहित होकर उस पाप कर्म के परिणाम को विचार । हे पुरुष ! तूं उत्तम विवेक से युक्त तथा पाप कर्म के अनुष्ठान से निवृत्त होकर क्रोध आदि को छोड़ शान्त बन जाओ । कर्म को विदारण करने में समर्थ वीर पुरुष, महामार्ग को प्राप्त करते हैं। उस महामार्ग का विशेषण बतलाते हैं - वह महामार्ग ज्ञान आदि मोक्ष का मार्ग है, तथा वह मोक्ष. के पास ले जानेवाला और ध्रुव अर्थात् निश्चित है । अतः यह जानकर उसी मार्ग का अनुष्ठान करना चाहिए, पाप कर्म करने में धृष्ट नहीं बनना चाहिए ॥२॥ - पुनरप्युपदेशदानपूर्वकमुपसंहरन्नाह - - फिर भी शास्त्रकार उपदेश देते हुए इस उद्देशक को समाप्त करते हुए कहते हैं - वेयालियमग्गमागओ, मणवयसाकायेण संवुडो । चिच्चा वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरे ॥२२॥ त्ति बेमि इति वैतालीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः (गाथाग्रम् १२०) छाया - वेदारकमार्गमागतो मनसा वचसा कायेन संवृतः । त्यक्त्वा वित्तं च ज्ञातीनारम्भं च सुसंवृतश्चरेत् ॥ इति ब्रवीमि ॥ व्याकरण - (वेयालियमग्गं) आगमन क्रिया का कर्म (आगओ) कर्ता का विशेषण (मणवयसाकायेण) करण तृतीयान्त (संवुडे) कर्ता का विशेषण (चिच्चा) पूर्वकालिक क्रिया (वित्त) कर्म (णायओ, आरंभ) कर्म (सुसंवुडे) कर्ता का विशेषण (चरे) क्रिया (आक्षिप्त पुरुष कर्ता)। अन्वयार्थ - (वेयालियमग्गं) कर्म को विदारण करने में समर्थ मार्ग में (आगओ) आकर (मणवयसाकायेण संवुडो) मन वचन और शरीर से गुप्त होकर एवं (वित्तं णायओ) धन तथा ज्ञातिवर्ग और (आरंभं च) आरंभ को (चिच्चा) छोड़कर (सुसंवुडे चरे) उत्तम संयमी होकर विचरना चाहिए ? भावार्थ - हे मनुष्यों ! कर्म को विदारण करने में समर्थ मार्ग का आश्रय लेकर मन, वचन और काय से गुस होकर तथा धन, ज्ञातिवर्ग और आरम्भ को छोड़कर उत्तम संयमी बनकर विचरो । ___टीका - 'वेयालियमग्गं' इत्यादि, कर्मणां विदारणमार्गमागतो भूत्वा तं तथाभूतं मनोवाक्कायसंवृतः पुनः त्यक्त्वा परित्यज्य वित्तं द्रव्यं तथा ज्ञातींश्च स्वजनांश्च तथा सावद्यारम्भं च सुष्ठु संवृत इन्द्रियैः संयमानुष्ठानं चरेदिति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२२॥ इति वैतालीयद्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः । टीकार्थ - "वेयालियमग्गं" इत्यादि । कर्म को विदारण करने में समर्थ मार्ग में आकर मन, वचन और काय से गुप्त होकर, धन, स्वजन वर्ग तथा सावध अनुष्ठान को छोड़कर जितेन्द्रिय होते हुए संयम का अनुष्ठान करना चाहिए । यह श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी आदि से कहा हैं । यह वैतालीय नामक दूसरे अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ । १३२
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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