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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा ३ हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः यहाँ मनुष्य का ही ग्रहण है । आशय यह है कि आयु, विघ्न बाधाओं से भरी हुई है, इसलिए सभी अवस्थाओं में प्राणी अपने प्राणों को छोड़ते हैं । कोई जीव, त्रिपल्योपम आयु पाकर भी पर्याप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही अपने जीवन को छोड़ देते है । अत एव कहा है कि कोई गर्भ में ही और कोई उत्पन्न होते ही अपने प्राणों को छोड़ देते हैं । इस विषय को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार दृष्टान्त बतलाते हैं जैसे श्येन (बाझ ) पक्षी तित्तिर को मार डालता है, इसी तरह प्राणियों के प्राण को मृत्यु हर लेती है । आयु के नाश का कारण उपस्थित होने पर आयु नष्ट हो जाती है अथवा आयु क्षीण होने पर जीवों का जीवन नष्ट हो जाता है ॥२॥ तथा - - 'मायाहिं पियाहिं लुप्पइ, नो सुलहा सुगई य पेच्चओ । एयाईं भयाइं पेहिया, आरम्भा विरमेज्ज सुव्वए ॥३॥ छाया - मातृभिः पितृभिर्लुप्यते नो सुलभा सुगतिश्च प्रेत्य । एतानि भयानि प्रेक्ष्य आरम्भाद्विरमेत सुव्रतः ॥ व्याकरण - (मायाहिं पियाहिं) कर्तृतुतीयान्त (लुप्पइ) कर्मवाच्य क्रिया (नो) अव्यय (पच्चओ) पूर्वकालिकक्रिया (सुलभा) सुगति का विशेषण (सुगई) अस्ति क्रिया का कर्ता (एयाई) भय का विशेषण (भयाई) कर्म (पेहिया) पूर्वकालिक क्रिया (आरंभा ) अपादान (सुव्वए) कर्ता (विरमेज्ज) क्रिया । अन्वयार्थ - (मायाहिं पियाहिं) कोई माता पिता के द्वारा (लुप्पइ) संसार भ्रमण कराये जाते हैं । (पेच्चओ) उनको मरने के पश्चात् (सुगई ) सद्गति (नो सुलहा ) सुलभ नहीं है (सुव्वए) सुव्रत पुरुष (एयाई भयाई) इन भयों को (पेहिया) देखकर (आरंभा विरमेज्ज) आरम्भ से विरक्त हो जाय । भावार्थ- कोई माता पिता आदि के स्नेह में पड़कर संसार भ्रमण करते हैं । उनको मरने पर सद्गति नहीं प्राप्त होती । सुव्रत पुरुष इन भयों को देखकर आरम्भ से निवृत्त हो जाय । टीका - कश्चिन्मातापितृभ्यां मोहेन स्वजनस्नेहेन च न धर्मम्प्रत्युद्यमं विधत्ते, स च तैरेव मातापित्रादिभिः लुप्यते संसारे भ्राम्यते, तथाहि “विहितमलोहमहोमहन्मातापितृपुत्रदारबन्धुसंज्ञम् । स्नेहमयमसुमतामदः किं बन्धनं शृङ्खलं खलेन धात्रा ?" ॥२॥ तस्य च स्नेहाकुलितमानसस्य सदसद्विवेकविकलस्य स्वजनपोषणार्थं यत्किञ्चनकारिण इहैव सद्भिर्निन्दितस्य सुगतिरपि प्रेत्य जन्मान्तरे नो सुलभा, अपितु मातापितृव्यामोहितमनसस्तदर्थं क्लिश्यतो विषयसुखेप्सोश्च दुर्गतिरेव भवतीत्युक्तम्भवति । तदेवमेतानि भयानि भयकारणानि दुर्गतिगमनादीनि, 'पेहिय' त्ति प्रेक्ष्य आरम्भात् सावद्यानुष्ठानरूपाद् विरमेत् सुव्रतः सन् सुस्थितो वेति पाठान्तरम् ॥३॥ टीकार्थ कोई मनुष्य माता-पिता तथा स्वजन वर्ग के स्नेह में पड़कर धर्म के लिए उद्योग नहीं करते हैं। वे उन्हीं माता-पिता आदि के द्वारा संसार भ्रमण कराये जाते हैं । अत एव किसी विद्वान ने कहा है - ( विहितमलोहं ) अर्थात् खल विधाता ने जीवों को बाँधने के लिए माता-पिता, पुत्र और स्त्री आदि रूपी स्नेहमय अहो लोहमय-अहोमहान क्या जंजीर बनायी है ? यद्यपि यह बन्धन लोह का नहीं है, तथापि यह उससे भी दृढ़ है । माता-पिता आदि स्वजन वर्ग के स्नेह में पड़ा हुआ मनुष्य भले और बुरे के विवेक से रहित हो जाता है, वह अपने स्वजन वर्ग का पोषण करने के लिए नीच से नीच कर्म भी करता है, अतः वह इस लोक में सज्जन पुरुषों के द्वारा निन्दित होता है और परलोक 1. माता पितरो य भातरो, विलभेज्जसु केण पेच्चर ? नागार्जुनीय पाठभेदः । ११७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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