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________________ सूत्रकृतानेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा २ हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः और स्थापना को छोड़कर नियुक्तिकार द्रव्य और भाव निक्षेप बताने के लिए कहते हैं (दव्वं निदा) इस गाथा में द्रव्य निद्रा और भावसंबोध (भाव से जागना) दिखाये गये हैं। द्रव्य निद्रा आदि है और भाव प्रबोध अन्त है, अतः आदि और अन्त के ग्रहण से उनके मध्यवर्ती भाव निद्रा और द्रव्य बोध का भी ग्रहण समझना चाहिए । इनमें दर्शनावरणीय कर्म का उदय स्वरूप निद्रा का अनुभव करना द्रव्य निद्रा है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की शून्यता भाव निद्रा है । द्रव्यनिद्रा में सोये हुए पुरुष का जागना द्रव्य बोध है और रित्र, तप और संयम को स्वीकार करना भाव बोध है । यहाँ भाव बोध का ही वर्णन है । यह इस गाथा के उत्तरार्द्ध के द्वारा सुगमता से बताया है। यहाँ द्रव्य और भाव भेद से निद्रा और बोध के चार भेद स्वयं जान लेने चाहिए ॥१॥ - भगवानेव सर्वसंसारिणां सोपक्रमत्वादनियतमायुरुपदर्शयन्नाह - समस्त संसारी जीवों की आयु [अधिकांश में] सोपक्रम होने के कारण नियत नहीं है, यह दिखाते हुए भगवान् श्री ऋषभदेव स्वामी कहते हैं - डहरा बुड्ढा य पासह गब्भत्था वि चयंति माणवा । सेणे जह वट्टयं हरे एवं आउखयंमि तुट्टई ॥२॥ छाया - डहराः वृद्धाश्च पश्यत गर्भस्था अपि त्यजन्ति मानवाः । श्येनो यथा वर्तिकां हरेदेवमायुःक्षये त्रुटयति ॥ व्याकरण - (डहरा, बुड्ढा गब्मत्था) ये तीनो मानव के विशेषण हैं (य, अपि) अव्यय है (चयंति) क्रिया (माणवा) कर्ता (पासह) क्रिया, इसका कर्ता आक्षिप्त यूयं है (जह) उपमा वाचक अव्यय (सेणे) कर्ता (वट्टयं) कर्म (हरे) क्रिया (एवं) अव्यय (आउखयंमि) अधिकरण (तुट्टई) क्रिया । अन्वयार्थ - (डहरा) छोटे बच्चे (बुड्डा) वृद्ध (य) और (गब्मत्थावि) गर्भ में स्थित बालक भी (माणवा) मनुष्य (चयंति) अपने जीवन को छोड़ देते हैं । (जह) जैसे (सेणे) श्येनपक्षी (वट्टय) वर्तक पक्षी को (हरे) हर लेता है (मार डालता है) (एवं) इसी तरह (आउखयंमि) आयुक्षय होने पर (तुट्टई) जीवों का जीवन नष्ट हो जाता है। भार्वार्थ - श्री ऋषभदेव स्वामी अपने पुत्रों से कहते हैं कि - हे पुत्रों ! बालक, वुद्ध और गर्भस्थ मनुष्य भी अपने जीवन को छोड़ देते हैं, यह देखो । जैसे श्येन पक्षी वर्तक पक्षी को मार डालता है। इसी तरह आयु क्षीण होने पर प्राणी अपने जीवन को छोड़ देते हैं। टीका - डहरा: बाला एव केचन जीवितं त्यजन्ति तथा वृद्धाश्च गर्भस्था अपि एतत्पश्यत यूयं, के ते ?मानवाः मनुष्याः तेषामेवोपदेशदानार्हत्त्वाद् मानवग्रहणं, बह्वपायत्वादायुषः सर्वास्वप्यवस्थासु प्राणी प्राणांस्त्यजतीत्युक्तं भवति, तथाहि त्रिपल्योपमायु पे पर्याप्तयनन्तरमन्तर्मुहूर्तेनैव कस्यचिन्मृत्युरुपतिष्ठतीति । अपि च "गर्भस्थं जायमान" मित्यादि । अत्रैव दृष्टान्तमाहयथा श्येनः पक्षिविशेषो वर्तकं तित्तिरजातीयं हरेद् व्यापादयेद् एवं प्राणिनः प्राणान् मृत्युरपहरेत्, उपक्रमकारणमायुष्कमुपक्रामेत्, तदभावे वा आयुष्यक्षये त्रुटयति व्यवच्छिद्यते जीवानां जीवितमिति शेषः ॥२॥ टीकार्थ - हे पुत्रों ! कोई बालकपन में ही अपने जीवन को त्याग देते हैं तथा कोई वृद्ध होकर मर जाते हैं, एवं कोई गर्भ में ही अपने प्राणों को छोड़ देते हैं, यह देखो । जीवन को छोड़नेवाले वे कौन हैं ? कहते हैं कि वे मनुष्य है । यद्यपि सभी प्राणियों की यह दशा है तथापि उपदेश देने योग्य मनुष्य ही होते हैं, अतः 1. द्रव्य से सोना और भाव से जागना यह पहला भङ्ग है । द्रव्य से जागना और भाव से सोना यह दूसरा भङ्ग है । द्रव्य और भाव दोनों से सोना यह तीसरा भङ्ग है । द्रव्य और भाव दोनों से जागना यह चौथा भङ्ग है । जो शरीर से सोता है परन्तु ज्ञान, दर्शन और चारित्र से जागता है, वह प्रथम भा का पुरुष है । जो शरीर से जागता है परन्तु ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सोता है, वह दूसरे भङ्ग का पुरुष है। जो शरीर से भी सोता है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र से भी सोता है वह तीसरे भग का पुरुष है । जो शरीर से भी जागता है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र से भी जागता है, वह चौथे भङ्ग का पुरुष है । ११६
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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