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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ५ परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः और निमित्तादि दोष रहित आहार को लेने की इच्छा करे । इस उपदेश के द्वारा दश प्रकार के ग्रहणैषणा दोषों का त्याग भी यहाँ जानना चाहिए । तथा साधु उस आहार में मूर्छा और राग-द्वेष न करे, यह कह कर पांच प्रकार के ग्रासैषणा दोषों को वर्जित करने का उपदेश किया है । इस प्रकार वर्तता हुआ साधु किसी का अपमान न करे । तथा विद्वान् मुनि तपस्या और ज्ञान का मद न करे ॥४॥ - एवं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकाराभिहितं 'किच्चुवमा य चउत्थे' इत्येतत्प्रदर्थेदानीं परवादिमतमेवोद्देशार्थाधिकाराभिहितं दर्शयितुमाह - उद्देशकों का अधिकार बताते हुए नियुक्तिकार ने कहा है कि 'किच्चुवमायचउत्थे' अर्थात् परतीर्थी गृहस्थ के तुल्य हैं, यह चतर्थ उद्देशक का अर्थाधिकार है, उसे बताकर अब परवादियों का मत ही बताते हैं. क्योंकि चतुर्थ उद्देशक का भी यह अर्थाधिकार है। लोगवायं णिसामिज्जा, इहमेगेसिमाहियं । विपरीयपन्नसंभूयं, अन्नउत्तं तयाणुयं ॥५॥ छाया - लोकवादं निशामयेद् इहेकेषामाख्यातम् । विपरीतप्रज्ञासम्भूतमव्योक्तं तदनुगम् ॥ व्याकरण - (लोगवायं) कर्म (णिसामिज्जा) क्रिया (इह) अव्यय (एगेसिं) कर्तृषष्ठ्यन्त (आहियं) क्रिया । (विपरीयपन्नसंभूय, अन्नउत्तं, तयाणुयं) ये लोकवाद के विशेषण हैं। अन्वयार्थ - (लोगवायं) लोकवाद अर्थात् पौराणिकों के सिद्धान्त को (णिसामिज्जा) सुनना चाहिए (इह) इस लोक में (एगेसिं) किन्ही का (आहिय) कथन है (विपरीय पन्नसंभूयं) वस्तुतः पौराणिकों का सिद्धान्त विपरीत बुद्धि से रचित है तथा (अन्नउत्तं तयाणुयं) अन्य अविवेकियों ने जो कहा है उसका अनुगामी है । भावार्थ- कोई कहते हैं कि पाखण्डी अथवा पौराणिकों की बात सुननी चाहिए, परन्तु पौराणिक और पौराणिकों की बात विपरीत बद्धि से उत्पन्न और दूसरे अविवेकियों की बात के समान ही मिथ्या है । [अतः सुनना योग्य नहीं] टीका - लोकानां-पाषण्डिनां पौराणिकानां वा वादो लोकवादः- यथा स्वमभिप्रायेणान्यथा वाऽभ्युपगमस्तं निशामयेत् शृणुयाज्जानीयादित्यर्थः तदेव दर्शयति 'इह' अस्मिन् संसारे एकेषां केषाञ्चिदिदमाख्यातमभ्युपगमः । 1. (ग्रहणैषणा) ग्रहणैषणा दोष दश प्रकार के होते हैं, ये साधु और श्रावक दोनों को लगते हैं । वे ये हैं - संकिय मक्खिय निक्खित्त पिहिय साहरिय दायगुम्मीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय एसण दोसा दस हवंति" ॥ साधु और गृहस्थ को आहार के विषय में शङ्का हो जाने पर उस आहार को ग्रहण करना शङ्कितदोष कहलाता है । सचित्त जल के द्वारा हाथ की रेखा अथवा केश जिसके भीगे है, उस गृहस्थ के हाथ से आहार लेना 'मृक्षित' दोष है । असूझती वस्तु पर पड़ी हुई सूझती वस्तु को लेना 'निक्षिप्त' दोष है । सचित्त वस्तु से ढंकी हुई अचित्त वस्तु को लेना 'पिहित' दोष है । जिस पात्र में असूझती वस्तु रक्खी हो उस पात्र में से उस असूझती वस्तु को निकालकर दूसरे पात्र में उसे रखकर उसी पात्र से आहार लेना (संहृत) दोष है । अथवा जिस घर में पश्चात् कर्म होने की सम्भावना हो उस घर में एक पात्र से निकालकर दूसरे पात्र में डालकर आहार दिया जाय और पश्चात् कच्चे पानी से उस पात्र को धोने की शङ्का हो तो उस दशा में उस पात्र से आहार लेना 'संहृत' दोष है । अंधा, लँगड़ा और लूला प्राणी अजयणा के साथ जो आहार दें, उसे लेना 'दायक' दोष है । असूझती वस्तु से मिली हुई सूझती वस्तु लेना 'उन्मिश्र' दोष है । पूरा पके बिना वस्तु को लेना 'अपरिणत' दोष है । तुरंत की लिपी हुई जमीन को लाँधकर आहार आदि लेना 'लिप्त' दोष है । आहार देते हुए मनुष्य के हाथ से आहार के छिंटे पड़ें तो उस आहार को लेना 'छर्दित' दोष है। 2. भोजन के समय साधुओं को जो दोष वर्जनीय है उन्हें 'ग्रासैषणा दोष' कहते है। वे पाँच प्रकार के हैं। वे ये है- (१) स्वाद के लिए एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाना, जैसे दूध में शक्कर और मिश्री आदि मिलाना, यह 'संयोजना' दोष कहलाता है । (२) मर्यादा से अधिक आहार करना, जैसे पुरुष को ३२ कवल और स्त्री को २८ कवल तथा नपुंसक को २४ कवल से अधिक भोजन करना प्रमाण दोष' कहलाता है। अच्छे आहार की प्रशंसा करते हुए आहार करना 'इंगाल दोष' है । बुरे आहार की निन्दा करते हुए आहार करना 'धूम दोष' है । छः कारणों के बिना आहार करना कारण दोष' है । 3. अण्णोण्णबुइताणुगा चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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