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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ४ परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः एषणां ग्रहणैषणां चरेदनुतिष्ठेदिति । अनेनाऽपि दशैषणादोषाः परिगृहीता इति मन्तव्यं, तथा अगृद्धः अनध्युपपन्नोऽमूर्च्छितस्तस्मिन्नाहारे रागद्वेषविप्रमुक्तः, अनेनाऽपि च ग्रासैषणादोषाः पञ्च निरस्ता अवसेयाः । स एवम्भूतो भिक्षुः परेषामपमानं-परावमदर्शित्वं परिवर्जयेत् परित्यजेत्, न तपोमदं ज्ञानमदं च कुर्यादितिभावः ॥४॥ टीकार्थ - गृहस्थ ने परिग्रह और आरम्भ के द्वारा अपने लिये जो भात आदि आहार बनाया है, उसे 'कृत' कहते हैं। उस कृत आहार अर्थात् अन्य के द्वारा बनाये हुए आहार में से साधु आहार लेने की इच्छा करे । यहाँ कृत आहार को ग्रहण करने के विधान से सोलह प्रकार के उद्रमा दोषों का परिहार सूचित किया गया है। जो खाया जाता है उसे 'ग्रास' कहते हैं । आहार का नाम ग्रास है । विद्वान् मुनि, उद्गम दोष रहित आहार का अन्वेषण करे । संयम पालन करने में निपुण मुनि, दूसरे लोग किसी प्रत्युपकार की आशा के बिना जो आहार कल्याण बुद्धि से देवें उसी को लेने की इच्छा करे । इस उपदेश के द्वारा यहाँ सोलह प्रकार के उत्पादन दोषों का संग्रह किया है, यह जानना चाहिए । अतः वह भिक्षु, पूर्वोक्त प्रकार का दौत्य, धात्री 1. "उद्गमनमुद्गमः पिण्डादेः प्रभवे" आहार उपजाने के दोष को "उद्गम" कहते हैं। यह सोलह प्रकार का होता है। जैसे कि "आहाकम्मुद्देसिय पूईकम्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए, पाओअर कीय पामिच्चे" ॥१॥ परियट्टिए अभिहडे उब्मिन्ने मालोहडे य । अच्छिज्जे अणिसिढे अज्झोयरए य सोलसमे ॥२॥ साधु को देने के लिए बनाया हुआ आहार 'आधाकर्म' कहलाता है, यह पहला दोष है । जिस साधु को देने के लिए आहार बनाया गया है, वह आहार यदि वही साधु लेवे तो आधाकर्म दोष होता है और दूसरा साधु वह आहार लेवे तो उसे औद्देशिक दोष होता है, यह दोष दूसरा है । (पूईकम्मे) पवित्र आहार में यदि आधाकर्म आहार का एक कण भी मिल जाय तो हजार घर का अन्तर देकर भी वह आहार लेने पर पूर्तिकर्म दोष आता है, यह दोष तीसरा है । (मिश्रजात) जो आहार साधु तथा अपने दोनों के लिए सामिल कर के बनाया गया है वह 'मिश्रजात' है । जो आहार साधु को देने के लिए रखा हुआ है और दूसरे को नहीं दिया जाता है, उसे 'स्थापना' दोष कहते हैं। साधु के लिए पाहुन (महोत्सवादि) को आगा पीछा करना 'प्राभृतिका' दोष कहलाता है। अंधकार से पूर्ण स्थान में प्रकाश करके साधु को आहार देना 'प्रादुष्करण' दोष है। साधु के लिए वस्त्र, पात्र आदि मोल लेकर साधु को देना 'क्रीत दोष' है । साधु के लिए आहार आदि उधार लाकर साधु को देना 'अप्रमित्य' दोष कहलाता है। साधु को देने के लिए अपनी वस्तु दूसरे को देकर उसके बदले में दूसरे की वस्तु लेकर साधु को देना 'परिवर्तित' दोष कहलाता है । साधु के सामने जाकर आहार आदि देना 'अभिहत' दोष कहलाता है । बर्तन के मुखपर लगे हुए लेप को छुड़ाकर उसमें से आहार निकालकर साधु को देना 'उद्वित्र' दोष है । पीढ़ा या सीढी लगाकर ऊपर-नीचे या तिरछी रखी हुई वस्तु को निकालकर साधु को देना 'मालापहृत' दोष है। किसी दुर्बल से छिनकर साधु को आहार देना अथवा बलात्कार से दिलाना 'आच्छेद्य' दोष कहलाता है । दो या अनेक मनुष्यों के सामिल की वस्तु किसी भागीदार की आज्ञा बिना साधु को देना 'अनिसृष्ट' कहलाता है। साधुओं को आये हुए जानकर अदहन में अधिक चावल आदि देना 'अध्यवपूरक दोष कहलाता है । ये ऊपर कहे हुए सोलह उद्गम दोष हैं। ये दोष दाता से लगते हैं। साधु आहार ले तो साधु को लगते है। 2. (उत्पाद दोष) उत्पाद दोष सोलह प्रकार के होते हैं । ये दोष जिहालम्पट साधु को लगते हैं । इनका स्वरूप यह है - “धाई दुई निमित्ते आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवन्ति दस एए । पुल्विं पच्छा संस्थव, विज्जा मंते य चुण्ण जोगे य । उप्पायणाइदोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥ (धात्रीकर्म) धाई का कार्य करके आहार लेना 'धात्रीदोष' कहलाता है । (दूतीकर्म) गृहस्थों का सन्देश पहुँचाना आदि दूत का कार्य करके आहार आदि लेना 'दौत्यदोष' है । (निमित्त) भूत, वर्तमान और भविष्यत् का लाभालाभ एवं जीवन, मरण आदि का हाल बताकर आहार लेना 'निमित्त' दोष कहलाता है। (आजीव) अपनी जाति और कुल को प्रकट करके आहार लेना 'आजीव' दोष कहलाता है। (वनीपक) भीखारी के समान दीनतापूर्वक आहार लेना 'वनीपक' दोष कहलाता है । (विचिकित्सा) रोगी की दवा करके आहार लेना 'विचिकित्सा' दोष कहलाता है । (कोह) क्रोध करके आहार आदि लेना 'कोह' दोष कहलाता है। (मान) अभिमान के साथ आहार लेना मान दोष है । कपट करके आहार लेना 'माया' दोष है। (लोभ) लोभ करके अधिक आहार लेना अथवा लोभ दिखाकर अधिक आहार लेना 'लोभ दोष है। (पुब्विपच्छासंस्थव) पहले या पीछे दाता की प्रशंसा करके आहार लेना 'पूर्वपश्चात्संस्तव दोष है। (विद्या) जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो अथवा जो साधनों से सिद्ध की गयी हो उसे 'विद्या कहते हैं, उस विद्या के प्रयोग से आहार आदि लेना विद्या' दोष है। (मन्त्र) जिसका अधिष्ठाता देवता हो अथवा जो साधना रहित अक्षर विन्यासमात्र हो उसे 'मन्त्र' कहते है, उस मन्त्र के प्रयोग से आहार आदि लेना ‘मन्त्र' दोष कहलाता है । (चूर्ण दोष) एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाने से अनेक सिद्धियाँ होती है, जैसे अदृष्ट अंजन आदि चूर्ण प्रसिद्ध हैं। उन चूर्णों के प्रयोग से आहार आदि लेना 'चूर्ण' दोष कहलाता है । (योग दोष) पैर के ऊपर लेप करने से जो सिद्धि होती है, उसे बताकर आहार आदि लेना 'योग' दोष कहलाता है । (मूलकर्म) गर्भपात आदि के लिए औषध बताकर आहार आदि लेना 'मूलकर्म दोष कहलाता है। ये १६ दोष उत्पाद कहलाते हैं। १०१
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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