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________________ सूत्रकृतानेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा ९ परसमयवक्तव्यतायां जगत्कर्तृत्वखण्डनाधिकारः अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि घट को बनाता हुआ कुम्हार जैसे प्रत्यक्ष देखा जाता है, उस तरह नदी, समुद्र और पर्वत आदि को बनाता हुआ कोई बुद्धिमान् कर्ता (ईश्वर) कभी नहीं देखा जाता है । अत: जगत् को देखकर विशिष्ट बुद्धिमान् कर्ता का अनुमान नहीं किया जा सकता । यदि कहो कि विशिष्ट अवयव रचना युक्त होने से घटादि पदार्थ जैसे बुद्धिमान् कर्ता द्वारा निर्मित हैं, उसी तरह विशिष्ट अवयव रचना युक्त होने से पर्वतादि पदार्थ भी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा निर्मित है । यह साधन किया जा सकता है ।" तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि विशिष्ट अवयव रचना होने मात्र से सभी पदार्थ बुद्धिमान् कर्ता द्वारा निर्मित हों यह प्रतीति नहीं होती है। यदि यह माना जाय तो वल्मीक भी मिट्टी का विकार होने के कारण घट के समान कुम्हार का बनाया हुआ सिद्ध होगा। जैसा कि- कुम्हार, घट आदि मिट्टी के पदार्थों को बनाता है, यह देखकर यह नहीं कहा जा सकता है कि जोजो मिट्टी के बने हुए पदार्थ हैं, उन सब का कर्ता कुम्हार है, क्योंकि ऐसा मानने से वल्मीक भी मिट्टी का विकार होने के कारण कुम्हार द्वारा निर्मित सिद्ध होगा । इसी तरह अवयव रचना मात्र देखकर यह नहीं कहा जा सकता है कि जो-जो अवयव रचना युक्त है, वह बुद्धिमान् कर्ता द्वारा किया हुआ है। किन्तु जिस अवयव रचना का बुद्धिमान् कर्ता द्वारा निर्मित होना जाना जा चुका है, उसी अवयव रचना को देखकर उसके विशिष्ट कर्ता का अनुमान किया जा सकता है, केवल अवयव रचना को देखकर नहीं । तथा अवयव रचना को देखकर ईश्वर का अनुमान भी नहीं हो सकता है, क्योंकि घटादि पदार्थों की अवयव रचना का विशिष्ट कर्ता कुम्हार ही देखा जाता है, ईश्वर नहीं देखा जाता । यदि घट का कर्ता भी ईश्वर ही है तो कुम्हार की क्या आवश्यकता है ? यदि कहो कि ईश्वर सर्वव्यापी होने के कारण निमित्त रूप से घटादि रचना में भी अपना व्यापार करता है, तो इस प्रकार दृष्ट की हानि और अदृष्ट की कल्पना का प्रसङ्ग आता है, क्योंकि घट का कर्ता कुम्हार प्रत्यक्ष उपलब्ध होता है, उसे न मानना दृष्ट हानि है और घट बनाता हुआ ईश्वर कभी नहीं देखा जाता है । उसे घट का निमित्त मानना अदृष्ट की कल्पना है । कहा भी है (शौषधादि) अर्थात् चैत्र नामक पुरुष का व्रण (घाव) शास्त्र के प्रयोग करने से होता है और औषध के लेप करने से मिटता है, इसलिए उसके घाव की प्रवृत्ति और निवत्ति में शा और औषध ही कारण हैं, दूसरे पदार्थ कारण नहीं हैं । परन्तु उस घाव के साथ जिसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है ऐसे स्थाणु (Vठ) को तुम घाव अच्छा होने का कारण क्यों नहीं मान लेते ? अतः जिस वस्तु का जो कारण देखा जाता है, उसे उसका कारण न मानकर जो उसका कारण नहीं देखा जाता है, उसे उसका कारण मानना सर्वथा अन्याय है । तथा देवकुल और गड्ढा आदि का जो कर्ता है, वह सावयव, अव्यापक और अनित्य देखा जाता है, इसलिए इनके दृष्टान्त से सिद्ध किया हुआ ईश्वर भी सावयव, अव्यापक तथा अनित्य ही सिद्ध होता है। इससे विपरीत यानी निरवयव व्यापक और नित्य ईश्वर की सिद्धि के लिए कोई दृष्टान्त नहीं मिलता है, इसलिए व्याप्ति की सिद्धि न होने से निरवयव व्यापक और नित्य ईश्वर का अनुमान नहीं हो सकता है । जिस प्रकार यह कार्यत्व हेतु, ईश्वर की सिद्धि के लिए समर्थ नहीं हैं, इसी तरह पूर्वोक्त "स्थित होकर प्रवृत्ति होना" आदि हेतु भी उक्त ईश्वर की सिद्धि के लिए समर्थ नहीं है, यह स्वयं योजना कर लेनी चाहिए, क्योंकि यह हेतु भी कार्य्यत्व हेतु के समान ही इष्ट अर्थ का साधक नहीं है । तथा यह जो पहले कहा है कि- "यह लोक प्रधानादि कृत है" इत्यादि, यह भी असङ्गत है, क्योंकि वह प्रधान मूर्त है अथवा अमूर्त है ? यदि वह अमूर्त है तो उससे मूर्तिमान समुद्र आदि नहीं उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि अमूर्त आकाश से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है, इसलिए मूर्त और अमूर्त का परस्पर कार्य कारणभाव विरुद्ध है । यदि वह प्रधान मूर्त है तो वह स्वयं किससे उत्पन्न हुआ ? उसे स्वयं उत्पन्न तुम नहीं कह सकते क्योंकि प्रधान के समान ही यह लोक भी स्वयं उत्पन्न क्यों न माना जावे ? वह प्रधान दूसरे से उत्पन्न है, यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि इस प्रकार अनवस्था दोष आता है। अतः जैसे प्रधान को उत्पन्न हुए बिना ही अनादि भाव से स्थित मानते हो, इसी तरह लोक को ही अनादि भाव से स्थित क्यों नहीं मानते? तथा सत्त्व, रज और तम की साम्य अवस्था को तुम प्रधान कहते हो, उस अविकृत प्रधान से महत् आदि पदार्थों की उत्पत्ति मानना तुम को इष्ट नहीं है, किन्तु विकृत प्रधान से जगत् की उत्पत्ति बतलाते हो और जो विकत
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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