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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशके गाथा ९ परसमयवक्तव्यतायांजगत्कर्तृत्वखण्डनाधिकारः अथवा उत्पन्न हुए बिना ही बनाता है ? वह उत्पन्न हुए बिना इस लोक को नहीं बना सकता है, क्योंकि जो उत्पन्न नहीं है, वह खरविषाण के समान स्वयमेव विद्यमान नहीं है। फिर वह दूसरे को उत्पन्न कैसे कर सकता है ? 1 यदि वह देवता उत्पन्न होकर इस लोक को बनाता है, तो क्या वह अपने आप ही उत्पन्न होता है अथवा किसी दूसरे के द्वारा उत्पन्न किया जाता है ? । यदि कहो कि वह अपने आप ही उत्पन्न होता है तो इस लोक को भी अपने आप ही उत्पन्न क्यों नहीं मानते हो ? । यदि कहो कि वह देवता दूसरे से उत्पन्न होकर इस लोक को बनाता है, तो वह दूसरा देवता भी किसी तीसरे देवता से उत्पन्न हुआ होगा और वह तीसरा देवता भी किसी चौथे देवता से उत्पन्न हुआ होगा । इस प्रकार अनवस्था दोष आता है । वह अनवस्था रूपी लता अनिवारित रूप से फैलती हुई समस्त आकाश को पूर्ण करेगी अतः सब का मूल कारण कोई सिद्ध न हो सकेगा । यदि को वह देवता अनादि होने के कारण उत्पन्न नहीं होता है, तो इसी तरह यह लोक ही अनादि क्यों न मान लिया जाय ? तथा जिस देव ने इस लोक को बनाया है, वह नित्य है अथवा अनित्य है ? यदि नित्य है तो अर्थ क्रिया के साथ विरोध होने के कारण वह न तो एक साथ क्रियाओं का कर्ता हो सकता है और न क्रमशः कर्ता हो सकता है । (आशय यह है कि जो पदार्थ नित्य है उसका स्वभाव नहीं बदलता है और स्वभाव बदले बिना पदार्थ से क्रियायें नहीं हो सकती हैं। अतः वह एक स्वभाववाला नित्य देव, न तो एक साथ क्रियाओं को कर सकता हैं और न क्रमशः कर सकता है। अतः वह जगत् का कर्ता नहीं हो सकता है ।) यदि वह देव अनित्य है तो उत्पत्ति के पश्चात् स्वयं विनाशी होने के कारण वह अपनी रक्षा करने में भी समर्थ नहीं है फिर वह दूसरे की उत्पत्ति के लिए व्यापारचिन्ता क्या कर सकता है ? तथा जिस देव ने इस लोक को बनाया है वह मूर्तिमान् है अथवा अमूर्त है ? यदि वह अमूर्त है, तो आकाश की तरह वह अकर्ता ही है । यदि वह मूर्त्तिमान् है कार्य्य की उत्पत्ति करने के लिए साधारण पुरुष के समान वह भी उपकरणों की अपेक्षा करता है, ऐसी दशा में वह समस्त जगत् का कर्ता नहीं है, यह स्पष्ट है । "यह लोक देवगुप्त है अथवा देवपुत्र है" यह मत तो अति तुच्छ होने के कारण श्रवण करने योग्य भी नहीं है । यही दूषण ब्रह्मोप्त पक्ष में भी देना चाहिए, क्योंकि ब्रह्मोप्त पक्ष भी देवगुप्त पक्ष के समान ही है ।" नाना मत का स्थानभूत यह शरीर समान ये कार्य्यं हैं। यह अयुक्त तथा ईश्वरकारणवादियों ने जो यह कहा है कि- "नाना मतवादियों के भुवन और इन्द्रिय, किसी विशिष्ट बुद्धिमान् के द्वारा रचित हैं, क्योंकि घट के है, क्योंकि किसी विशिष्ट कारण में कार्य्य की व्याप्ति गृहीत नहीं होती है, किन्तु कारण में कार्य्यं की व्याप्ति गृहीत' होती है। जो पुरुष यह जानता है कि अमुक कार्य्य अमुक व्यक्ति ही करता है, दूसरा नहीं कर सकता है, वह पुरुष उस कार्य्यं को देखकर उसके कर्ता यानि उस विशिष्ट व्यक्ति का अनुमान कर सकता है परन्तु जो वस्तु अत्यन्त अदृष्ट है, उसमें यह प्रतीति नहीं हो सकती । अर्थात् जिसकी रचना करता हुआ कोई व्यक्ति कभी भी किसी से नहीं देखा गया है, उस वस्तु को देखकर उसके विशिष्ट कर्ता का अनुमान नहीं किया जा सकता । यदि कहो कि घट को देखकर उसका कर्ता कुम्हार अनुमान किया जाता है और वह कुम्हार जैसे एक विशिष्ट जाति का पदार्थ है, इस तरह जगत् को देखकर उसका विशिष्ट कर्ता ईश्वर अनुमान किया जा सकता है तो यह ठीक नहीं क्योंकि घट एक विशेष प्रकार का कार्य्य है और उसका कर्ता कुम्हार उसे करता हुआ प्रत्यक्ष देखा जाता है, इसलिए घट को देखकर कुम्हार का अनुमान किया जा सकता है । परन्तु जगत् को देखकर ईश्वर का 1. जैसे घट, पट या मठ को देखकर यही अनुमान किया जा सकता है कि- ये सब किसी कर्ता द्वारा निर्मित हैं, क्योंकि ये कार्य्य है । परन्तु यह अनुमान नहीं किया जा सकता है कि ये घट पटादि अमुक व्यक्ति के द्वारा निर्मित है, क्योंकि- "यत्र यत्र क्रियाजन्यत्वं तत्र तत्र कर्तृजन्यत्वम्" जो-जो कार्य है, वे सब कर्ता द्वारा किये हुए है। इस प्रकार ही कार्य्यं की व्याप्ति कारण में गृहीत होती है परन्तु “यत्र यत्र क्रियाजन्यत्वं तत्र तत्र अमुकव्यक्तिजन्यत्वम्" अर्थात् जो-जो कार्य्य होता है, वह अमुक व्यक्ति के द्वारा निर्मित होता है । इस प्रकार कार्य्य की व्याप्ति कारण में गृहीत नहीं होती है घट को देखकर यही कहा जा सकता है कि इसे कुम्हार ने बनाया है परन्तु इसे अमुक कुम्हार 'ने बनाया है, यह नहीं कहा जा सकता है। इस तरह जगत् को देखकर यही कहा जा सकता है कि यह जगत् कारण से उत्पन्न हुआ है परन्तु यह जगत् अमुक कारण से उत्पन्न हुआ है। यह नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि कार्य्यं ही व्याप्ति विशिष्ट कारण में नहीं होती है । यह ऊपर कहा जा चुका है । 7 ८७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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