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यतुशी ४] માળીયા ટને ઈતહાસ
२२१ ॥ मंगला चरण दुहा ॥ श्री सहजानंद सीवरतें, आफत रहे न एक । ममता मान अग्यान मीटी, आवतसगुन अनेक ॥ १ ॥ सगुन सबे सत्संगमें, दुरीजनसो दुःख देही । प्रेरत निसो प्रमादउँ, जग फीतनत हे जेही ॥ २ ॥
कवित. जेही दुखकारी, वाकुं मानतहो सारी तुंम । दीलमें बिचारी देखो कैसी यह सारी हे॥ नाक मुखवारि जारी रेतना उघारी आंख । सुस्त मन भारी उठे हिंमत बिसारी हे। रंजन जो नारी लागे थोरे दीन प्यारी वह । पीछे देत गारी अंत वीखसम खारी हे॥ कहत पोकारी सुनु अरज हमारी श्याम । अफीमकी यारी सारे भवको खुवारी हे॥१ व्योम सूरचाप ज्यु विगारत गरज घन । कुदरत इलाहिकी बिगारत हे रमली । नींद गफलत राह चलते अकळपंथ । पदतल अनुपकुं बिगारतहे बमली ॥ खुब महबुब नुरहुर परीपे करसी । नाजनी नवीनकुं बिगारतहें गमली ॥ फुकतहे धुंकतहे झुकतह थुकतहे । खासे अंबखासकु बिगारतहे अमली ॥२ होवत उतार तबे होवत उतार सम । आखर औसान जैसे बंधसो खलीत है॥ जुवे सब संवे रुवे बसनसो धुवे धुंवे । अतही मलीन मुख लबसो गलीत हे। सवे लख सुगलक आवत उगल अंग । पोखर बनारससी बदबो मलीत हे ॥ दंतनां घसत आब दस्त नां लहत पुरो । ऐसे जग बीच महा पोस्ती पलीत हे॥३
(અફીણના બંધાણુની સ્ત્રીના ઉદ્ગાર) कबहुना नननसे नेनकुं मीलाकरकें । सेनकी सजावटसे काम नां जगायो है ॥ कबहु नां रतीयामें रतियां बिनोद कर। छतीयां मिलाकर न अंग लपटायो हे॥ कबहु नां मर्दनसें श्रम सों श्रमित होय । आनंदकी निंदभर दीन नां उगायो ह॥ हाय मील्यो पोस्ती पति सो अफसोसती हुँ। मानवतन पाय वृथा जन्नम गुमायो हे॥४ होती जो में विधवा तो सांख्यक सिद्धांतहसे । ध्यान धर इश्वरमें मनकुं मीलावती। होती सत्य सधवा तो रसके उद्धिपनसे । प्रेम लपटायकर पतिकुं रीझावती ।। होती जो कुमारीका तो लखतीन अंग नर। योग वृत द्रढसे परम पद पावती ॥ हाय नहि विधवा न सधवा कुमारीकामें । अमली पतिसे नहिं एको गत कावती॥
काव्यकी नदीसी जानुं पींगल प्रवीसी नहि रस अलकार व्यग ध्वनि नां लसीसी हे॥ दोष गन कीसी मुजे नाहि पहीचान जीसी। व्यसन अरिसी सत्य बातसें बसीसी हे॥ भाषा नागरीसी विधी जानुं नाहि फारसिसी। काव्यसी भनीसी मम गुरुकी असीसी हे। सीसी ज्युं बिलोरकीसी मनकी शुद्धीसी बनी।रंजन के मीसी लखी पोस्तकी पच्चीसी हे॥६