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________________ चंद्रया९ चउसाल सार, पोषधशाला ४ च्यारी मली, पंच ५ य जिणहर दीपतां, तलिया- तोरण तेज पुंज, हिव' पहिले वंदंतां पंचाणु ं ९५ वचि बइठु अणियाली छु लोचन है है बे सरवंगि १३ ན · ३ ३. रे, मनोहर तव सार मूरति, पेखतां मन (ड़) उ हुलसइ ११, मुख देखि पूनमचंद बीहतु, गयण १२ मंडलि जइ वसइ ॥७॥ ३. ॥ ढाल ॥ रे, चुकी १० बहु सोहइ, दीठइ मन मोहइ ; सोहइ सुविसाल, करि पूजता प्रतिमा वीर जिणहरि त्रिसला संकट वरणन सहित जिणंद भाकमाल ॥५॥ उची नासा सुय चंचु नई अणियालां अति हू केतु मंन मोहन जगजीवन रे, भविजन तुझ दरसनि रे, मन चिंतामणि रे, कामकुंभ जगबंधव ने वंछित नवि कूयरू, हरू ; जिणेसरू, मनोहरू ॥६॥ करू ं वरणन केम तोरू, अनंत गुण नुं तू धणी, मुखि एक जीहा' ४ थेव १५ बुद्धि, केम गुण जाणु गुणी ॥९॥ दीसती, जीपती ; सुंदरू, ww करूं ॥८॥ जग नायकू, सुख - दायकू ; सुख पामीइ, कामीइ१६ ॥१०॥ कामीइ जे अरथ सघला, वीर जिन तुझ नाम थी, पामीइ भवियण कहइ कवियण, नमई जे तुझ भाव थी ॥ ११ ॥ ९. चंद्रोवा १०० चौकी ११. उल्लसित हो १२. आकाश १३. सर्वांग - सब १४. जीभ से १५. अल्प १६. कामना करना प्रकार से [ ८३
SR No.032676
Book TitleSwarnagiri Jalor
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharati Acadmy
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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