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________________ तह चिर भवणे बीए वंदे चंदप्पहं तओ तडए पणय जण पूरियासं कुमर विहारंमि सिरि पासं ॥८८॥ टीका - जावालिपुरे श्री वीरजिन भवने अति बहु आश्चर्य निधिः रथोवर्त्तते तत्र तदा रथयात्रा प्रवर्त्ततेस्म सच रथः सज्ज स्वयमेव उपरि निविष्टायां श्री वीर मूर्ती स्वयमेव पुरमध्ये संचरति प्रकट सादिव्यः प्रकटातिशयः पटहश्चास्ति सच पटहो रथयात्रायां अवादितः स्वयं पुरो गर्जते द्वौच बलभृत्यौ पुरुष रूप प्रतिभाधरौ वृषभ स्थाने भूत्वा रथयात्रायां रथ वाहयत इति ॥ ८६ ॥ | सुवर्णगिरि शिखरे यक्ष वसति नाम प्रासादे नाहड़ नृप कालीन नाहड़ नृप वारके प्रतिष्ठितं वीर श्री वर्द्धमानं स्तुति विषयं कुरु किं० वि० सुवर्णगिरि शिखरे नवनवति लक्ष धनपत्य लब्ध वासे नवनवति लक्ष प्रमाण धनस्य पतिभिः अलब्धो वासो यत्र यदाहि नाहड़ नृप वारके ९९ लक्ष धन स्वामिनः सुवर्णगिरि शिखरे वासं न प्रापुः कोटि-ध्वजा एव तत्र तदाऽवसन्नेति ॥८७॥ यथा द्वितीये चिर भवने चिरंतन प्रासादे चंद्रप्रभुं वंदे ततस्तृतीये भवने पुनः कुमरबिहारे कुमारपाल नृप कारित प्रासादे प्रणत जन पूरिताशं पार्श्व वंदे प्रणतानां जनानां पूरिताः सिद्धि नीता आशायेन ।। ८८ ।। जैन सत्यप्रकाश वर्ष १९ अंक ४-५ में प्रकाशित मुनिप्रभसूरि कृत अष्टोत्तरी तीर्थमाला में- ८० कुंकुमलोलो ॥१०॥ उ० विनयप्रभ कृत तीर्थयात्रा स्त० ( गा० २५) जैन सत्यप्रकाश वर्ष १७-१ । मंगल नमिवउ नव पल्लव, सोवनगिरि समरी सफलउ भव, करिवउ वाहड़मेरिहि रिसह संति जालउहि वोरो । सिरि साचउरिहिं भीमपल्लो वायड़पुरि वीरो ४ सं० १४७७ में हेमहंससूरि लिखित मातृकाक्षर चैत्य परिपाटी में - जीराउलि जालउरि जूनइगढ जिण जालहरे । जिणहर जिणह विहारि जालंधरि जमणा तड़िहि ॥११॥ ३२ में— सम्मेय सेल सेत्तु ज्ज उज्जले अब्बुयंमि चित्तउड़े । जालोरे रणथंभे गोपालगिरिम्मि वंदामि ॥१९॥ ] श्री सिद्धसेन सूरिकृत सकल तीर्थ स्तोत्र गा०
SR No.032676
Book TitleSwarnagiri Jalor
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharati Acadmy
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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