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और दूसरोंपर उनकी बुद्धिका तत्क्षण प्रभाव पड़ता था। रघुनाथजीने इन श्रावकोंकी शङ्का दूर करनेके लिये भीखणजीको योग्य समझा और अन्य कई साधुओंके साथ उन्हें राजनगर भेजा। स्वामीजीने राजनगरमें चातुर्मास किया और अनेक युक्तियोंसे श्रावकोंको समझा कर पुनः बन्दना प्रारम्भ करवाई । श्रावकोंने बन्दना करना तो स्वीकार किया फिर भी उनके हृदयसे शङ्कायें दूर नहीं हुई और भीखणजीके युक्तिसे, उनके वैराग्यमय जीवन और सतमार्गपरं उनको चलनेकी प्रतिज्ञाके प्रभावसे ही श्रावकोंने उन्हें बन्दना करना आरम्भ किया। उसी रातको भीखनजीको असाधारण ज्वरका प्रकोप हुआ। ज्वरकी तीव्र वेदनाने भीखनजीको अध्यवसायोंको पवित्र कर दिया। उन्होंने सोचा मैंने सत्यको झूठ ठहरा कर ठीक नहीं किया ! यदि इसी समय मेरी मृत्यु हो तो मेरी कैसी दुर्गति हो ! इसी प्रकार आत्म-ग्लानि और पश्चात्तापसे उनके हृदयका सारा मल धुप गया और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि यदि मैं इस रोगसे मुक्त हुआ , तो अवश्य पक्षपात रहित होकर सच्चे मार्गका अनुसरण करूंगा, जिनोक्त सच्चे सिद्धान्तोंको अङ्गीकार कर उनके अनुसार आचरण करनेमें किसी की खातिर न करूंगा। इस प्रकार एक दिव्य आन्तरिक प्रकाशसे उनका हृदय जगमगा उठा और बादका उनका सारा जीवन इसी आन्तरिक प्रकाशसे आलोकित रहा। . ये स्वामीजीकी असाधारण महानताके लक्षण थे। उनमें हठधर्मी या जिद न थी कि अपनी भूल मालूम होने पर भी उसे छुपाते या उसका पोषण करते । एक सच्चे मुमुक्षुकी तरह वे तो सत्यकी खोजमें लगे हुए थे। अतः जहां सत्यके दर्शन होते उसी ओर वह आगे बढ़ते । ऐहिक मानसम्मान या पद-गौरवकी रक्षाका खयाल उन्हें तनिक भी न था। सत्यकी मर्यादाके सामने इनके लिये ये सब बातें नगण्य थीं । इसलिये जब उन्हें उस वखतके साधु समाजके शिथिलाचारका मालूम पड़ा तो उन्होंने उसका प्रायश्चित्त भी किया।