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कायासे अहिंसक होना चाहिए यदि वह स्वयं अहिंसक हैं तो उसके सामने हिंसाएँ होती रहें उसका पाप उसे नहीं है । हिंसा करने वाले, कराने वाले व अनुमोदन वालेको ही हिंसाका पाप होता है न कि देखने वालेको । यदि देखने वालेको ही हिंसा हो तो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त बल सम्पन्न अरिहन्त भगवान् एवं त्रिकालदर्शी केवली कैसे अहिंसक वन सकते । अतः साधु हिंसा के कार्यों को देख कर चलचित्त नहीं होते, परन्तु विवेक पूर्वक तटस्थता धारण किये रहते हैं । बल का प्रयोग कर जीव घात को रोकना उनके लिये पाप हो जाता है। जैन शास्त्रों में तो यहां तक कहा है कि किसी भोगी को भी भोगों से जबरदस्ती बचत करना महा बलवान मोहनी कर्म को बांधना है । इसी न्यायसे साधु जीव मात्र का आपसी कलह, मार काट आदि में बल प्रयोग कर वाधा नहीं देते, उपदेश द्वारा समझा कर उसे निबृत्त करना ही उनका धर्म व कर्तव्य है । न्यायकी दृष्टि से भी ऐसा ही उचित प्रतीत होगा । अनुचित पक्षपात या राग-द्वेष समस्त कर्मों का मूल है। कुछ लोग इस बातका रहस्य न समझ अन्य धर्मियोंके देखादेख दयाका स्वरूप ही दूसरा बतलाते हैं । उनकी यह भूल, शास्त्र की दृष्टिले स्पष्ट प्रतीयमान है ।
इस प्रकार बल या जवरदस्तीसे काम लेनेसे जहां रक्षकको कोई लाभ नहीं होता उल्टा अन्तराय उपस्थित करनेसे पापकर्म लगता है वहां आततायीका भी कोई सुधार नहीं होता । बिना मन धर्म पालन करवा लेने से ही पाप दूर नहीं होता ।
(६) सुपात्र दानसे धर्म होता है । कुपात्र दानमें संसार कीर्ति भले ही हो धर्म पुण्य नहीं है । जैन शास्त्रोंमें दश दानोंका वर्णन आया है परन्तु उन सभीमें धर्म न समझना चाहिये । ग्रह उपग्रहादिकी शान्तिके लिए जो धन धान्यादि दिया जाता है वह भी दान है और विवाह - शादी के अवसर पर दहेज, मुकलावादि दिया जाता है वह भी दान है परन्तु इनमें कोई धर्म नहीं है । देने मात्र धर्म समझना भूल है । दानसे धर्म लाभ करना