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( १८ ) (२) जैन साधु माधुकरी वृत्तिसे भिक्षा करते हैं अर्थात् बिना किसी एकके ऊपर भार स्वरूप बने वे थोड़ा थोड़ा अनेक घरोंसे भिक्षा ग्रहण करते हैं। .
(३) कोई भिखारी या अन्य याचक किसी घर पर भिक्षा मांग रहा हो तो साधू भिक्षा मांगनेके लिए वहाँ नहीं जाते। क्योंकि ऐसा करनेसे दूसरेके अन्तराय पहुंचे।
(४) हरी दूब, घास, राखसे ढकी हुई आगी, जल आदि पर से होकर साधु विहार नहीं करते।
(५) यदि कोई दुष्ट साधुको मारनेके लिए आवे तो साधु प्रत्याक्रमण नहीं करते बल्कि समभाव पूर्वक उसे समझाते हैं और उसके न समझनेसे समभावसे आक्रमणको सहन करते हैं। और विचार करते हैं कि मेरी
आत्माका कोई नाश नहीं कर सकता। .. (६) साधु खान पान, स्वच्छता तथा मल-विसर्जनके ऐसे नियमोंका पालन करते हैं कि जिससे उनके निमित्तिसे जीव जन्तुओंकी उत्पत्ति या विनाश न हो।
• (७) किसीके कठोर बचनोंको सुनकर जैन साधु चुपचाप उसकी उपेक्षा करते हैं और मनमें किसी प्रकारका विचार नहीं लाते, मारे जाने पर भी मनमें द्वेष लाना जैन साधुके लिए मना है। ऐसे अवसर पर पूर्ण सहनशीलता रखना ही साधुका आचार है।
इस प्रकार जैन धर्मके सभी नियमोंमें अहिंसाको स्थान दिया गया है और सच्चे जैन साधु सम्यक प्रकारसे उसका पालन करते हैं। तेरापंथी साधु इन नियमोंको यथारूप पालते हैं। दूसरों के भांति शिथिलाचारी बनकर व्रत भङ्ग नहीं करते।
(२) मृषावाद विरमण व्रतः-इस व्रतके अनुसार साधु प्रतिज्ञा करते हैं कि वह किसी प्रकारका असत्य भाषण नहीं करेंगे। उनकी प्रतिज्ञा होती है कि मैं मन वचन या कायासे न झठ बोलूंगा, न बुलाऊँगा, न जो