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अपने मनकी सारी विचार धाराको शास्त्रीय मतसे एकीकरणकर दिखाया और अपने मतकी जड़को पुष्ट कर दिया। जो मत केवल १३ साधु और श्रावकों को लेकर शुरू हुआ था वह आज फैलता-फ -फलता दो लाखकी संख्या तक पहुंच गया है। आज राजपुताना, बंगाल, आसाम, पंजाब, मालवा, खानदेश, गुजरात और बम्बई प्रभृति सभी स्थानों में इस मत के अनुयायी हैं।
भीखणजीके धर्म प्रचारके क्षेत्र मारवाड़, मेवाड़ ढूंढाड़, तथा कच्छ आदि प्रदेश ही रहे कच्छ प्रदेशमें स्वयं स्वामीजीका बिहार न हुआ था परन्तु वहां उनके मतका प्रचार श्रावक टिकम डोसीके द्वारा हुआ था । भीखणजीने अपने जीवन-काल ४८ साधु तथा ५६ साध्वियों को प्रवर्जित किया था जिनमें से २० साधु तथा १७ साध्वियाँ साधु मार्ग के कठोरता -सहन में असमर्थ हो गण बाहर हो गयी थीं । श्रावक तथा श्राविकाओंकी संख्या भी बहुत बढ़ गई थी । इस प्रकार स्वामीजी अपने मत प्रचारकी सफलता अपने जीवन कालमें ही देख सके थे। स्वामीजीका देहावसान भादवा सुदी १३, संम्वत् १८६० को हुआ था । उन्हें अन्त समय तक जागरुकता रही । अपने अन्तिम दिनोंमें उन्होंने गण समुदायके हितके लिये जो उपदेश दिया वह स्वर्णाक्षरोंमें लिखने योग्य है ।
द्वितीय आचार्य -
स्वामीजीके बाद द्वितीय आचार्य श्रद्धेय श्री श्री १००८ श्री श्री भारीमालजी स्वामी हुए। आपका जन्म मेवाड़के मूहो ग्राममें संम्वत् १८०३ में हुआ था आपकी दीक्षा मारवाड़के केलवा ग्राममें हुई थी । स्वामी भीखणजी ने अपने जीवन कालमें ही इन्हें युवराजपदवीसे विभूषित कर दिया था । इनके पिताका नाम कृष्णाजी लोढ़ा और माता का नाम धारिणी था । इनके शासन कालमें ३८ साधु और ४४ साध्वियांकी प्रवज्र्जा हुई । आप बड़े ही प्रतापी आचार्य हुए। खुद स्वामी भीखणजीने अन्त समयमें इनकी प्रशंसा की थी और सर्व साधुओंको उनकी आज्ञामें रहनेका आदेश किया था । उन्होंने कहा था कि ऋषि भारीमालजी सच्चे साधु हैं,