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अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठा १ का ज्ञान माता, पिता, गुरु, बन्धुजनों को पूज्य व्यवहार ६२६
की मर्यादामय प्रकृति होजाय । व्यासजी ने विनम्र जिज्ञासा की-मनु, वसिष्ठ, कश्यप, गर्ग, गौतम, उशना, हारीत, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, प्रचेता, आपस्तम्ब, शंख, लिखित आदि धर्मशास्त्र प्रणेताओं के धर्म निबन्ध सुनने पर भी वर्तमान कलियुग की धर्म-मर्यादा बनाने में अपने को असमर्थ समझकर आपके पास इन ऋषियों के साथ आया हूं कलियुग में धर्म को नष्टप्राय देख रहा हूं। अतः आपका तपोमय जीवन ही इस युग धर्म की व्यवस्था दे सकता है, इसपर व्यासजी ने (१६-२६) तक युग चतुष्टय की व्यवस्था धर्म मर्यादा का तारतम्य बताया है। (२६) में दान के प्रकरण में सेवा दान दान नहीं है वह सेवा का मूल्य है । सत्ययुग में अस्थि में प्राण रहते थे, त्रेता में मांस में, द्वापर में रुधिर में और कलियुग में अन्न में प्राण रहते हैं (३०)। इस कारण दीर्घ समय तक तपस्या की क्षमता कलियुग के जीवन में नहीं है और अन्न की सावधानी पर ध्यान दिलाया जैसा अन्न खायगा उसी प्रकार उसके जीवन की सम्पूर्ण घटना होगी। कलियुग के जीवन की प्रवृत्ति बनाकर आचार पर ध्यान दिलाया है (३१-३७)।