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इसीलिये तो कहा है
" षट्कर्माणि कृषि ये तु कुर्युज्ञानविधि द्विजाः । ते सुरादिवरप्राप्तः स्वर्गलोकमवाप्नुयुः ॥
द्विज मात्र को खेती करने का विधान पराशरजी बताते हैं । उपनिषद् में भी आया है "अक्षेर्मा दिव्य कृषिमित्कृषस्व” (ऋ० ७।८।५) इन्द्रियों के भोगों में मत खेलो, कृषि कर्म में मन लगाओ इस तरह मनुष्यमात्र को खेती करना धर्म बताया है । तब तो स्थान-स्थान पर बछड़े का पालन करने का विधान और उसे हृष्टपुष्ट बनाकर दान देने का विधान है
एकोऽपि वृषभो देयो धुर्धरः शुभलक्षणः । अरोगश्चापरिक्लिष्टो यस्मात्स दशगोसमः ॥ एकेन दत्तेन वृषेण येन
दत्ताभवेयुर्दश सौरभेयाः । आहेम पीताद्धरणीसमाना
तस्माद्वृषात्पूज्यतमोऽस्तिनान्यः ॥
एक पुष्ट वृषभ का दान दस गोदान के तुल्य बताया है । दान ब्राह्मण लेते हैं इसलिये कृषिकर्म द्विजाति मात्र का धर्म महर्षिपराशर बतलाते हैं । इसी प्रकार अत्रि-संहिता में खेती का वर्णन आया है | हारीत ने भी कृषि कर्म को धर्म बताया है । देवपितृ पूजन का सविस्तर वर्णन मिलता है | स्मृतियों में वैदिक शब्दों के उद्धरण होने से इनका अभिप्राय निरुक्त और निघण्टु के अनुकूल प्रसङ्गानुसार आवश्यक है | अतः स्मृतियां वेदानुरूप ही हैं ।
कात्यायन ने राजधर्म, आश्रमधर्म, दानधर्म और मर्यादा पालन पर विशेषतया कहा है ।
बृहस्पति ने सामप्रधान राजनीति और दान धर्म बताया है। औशनस ने राजशासन में दण्डदापन को धर्म कहा है । नारद स्मृति में -
“धर्मैकतानाः पुरुषास्तदासन् सत्यवादिनः । नष्टे धर्मे मनष्येषु व्यवहारः प्रवत्तितः ॥ " मनुष्य जाति की स्वाभाविक गति धर्मानुकूल चलती जाती थी तब तक व्यवहार का अनुशासन नहीं था । धर्म गति से जब संसार विचलित होने लगा तब व्यवहार के नियमों में उसे