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जैन इतिहास ज्ञानभानु किरण नंबर ११ श्री महाजन संघ का इतिहास
*अगवान महावीर के निर्वाण के बाद जैन-धर्म में दो
' परम्पराएँ विद्यमान थीं। एक तो भगवान महावीर की परम्परा, जिसके अधिपति थे गणधर सौधर्माचार्य और दूसरी परम्परा थी प्रभु पार्श्वनाथ की, जिसके नायक थे केशी श्रमणाचार्य के पट्टधर आचार्य स्वयंप्रभसूरि । ____ उस समय जैन श्रमणों का विहार-क्षेत्र प्रायः पूर्व भारत ही था और आचार्य सौधर्मसूरि की संतान पूर्व भारत में भ्रमण कर जैन-धर्म का प्रचार करने में दत्तचित्त थी। हाँ, आचार्य स्वयंप्रभसूरि जरूर अपने ५०० शिष्यों को साथ ले पश्चिम भारत की ओर प्रस्थान कर राजपूताना को अपना बिहार-क्षेत्र बना आगे की ओर बढ़ रहे थे।
राजपूताना आदि कई पश्चिमी प्रान्तों में उस समय नास्तिक तांत्रिकों एवं बाममागियों का बड़ा ही जोर शोर था। क्या बड़े-बड़े नगर और क्या छोटे-छोटे गाँव, सर्वत्र उनका ही बोलबाला था। यत्र तत्र उन पाखंडियों के अखाड़े जमे हुए थे। मांस, मदिरा, और व्यभिचारका सर्वन अबाध प्रचार था और वे पाखण्डी गईन असकर्मी में ही धमे आय एवं स्वर्ग प्राप्ति बतला हे श्रे। धर्म के नाम पर असंख्य निरपराधी मूक प्राणियों के रद से सज्ञ की वेदियां रञ्जित की जाती श्री) इत्यादि अनेक अत्यारों की भीषण भट्टिये सब जगह अधकही थीं । जनता